राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 100 वर्ष: योगदान, विवाद और भविष्य की राह
लेखक के रूप में मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मेरी वैचारिक असहमति के बावजूद संघ पर लिखना अनिवार्य है, क्योंकि अब इसे नज़रअंदाज़ करना संभव नहीं। संघ की पहुँच इस हद तक है कि इसके दो स्वयंसेवक भारत के प्रधानमंत्री बने—अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी। इतना ही नहीं, संघ की शताब्दी पर केंद्र सरकार ने विशेष डाक टिकट भी जारी किया है, जो इसके प्रभाव की औपचारिक स्वीकृति है।
संघ की स्थापना और वैचारिक पृष्ठभूमि
संघ की स्थापना डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने 27 सितंबर 1925 को की थी। उस समय भारत स्वतंत्रता संग्राम के दौर से गुजर रहा था। हेडगेवार का मानना था कि गुलामी का कारण केवल अंग्रेजों की ताक़त नहीं, बल्कि हिंदू समाज का संगठनहीन होना भी है। उन्होंने संगठन और चरित्र निर्माण को प्राथमिकता दी।
संघ की वैचारिक धुरी “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” रही। इसमें भारत को केवल राजनीतिक इकाई नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक राष्ट्र मानने की धारणा है। इतिहासकार वाल्टर एंडरसन (The RSS: A View to the Inside) लिखते हैं कि संघ ने “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को भारतीय राजनीति के विमर्श में स्थायी स्थान दिलाया।”
वहीं, विचारक रामचंद्र गुहा का मानना है कि संघ “भारतीय राष्ट्रवाद की बहुलतावादी परंपरा से अलग एक संकीर्ण धारा है, जो विविधता के बजाय एकरूपता पर जोर देती है।”
संघ की परंपराएँ और कार्यशैली
संघ का सबसे महत्वपूर्ण आयोजन है—शाखा। प्रतिदिन स्थानीय मैदानों में स्वयंसेवक एकत्रित होकर व्यायाम, खेल, गीत, बौद्धिक चर्चा और प्रार्थना करते हैं। यह शाखा संघ का “सूक्ष्म विद्यालय” है, जहाँ अनुशासन और सेवा की भावना का संस्कार होता है।
गणवेश ने भी संघ की पहचान बनाई। लंबे समय तक खाकी नेकर इसका प्रतीक रहा, बाद में बदलकर भूरे पैंट और सफेद शर्ट कर दिया गया। संघ की प्रार्थना ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे’ मातृभूमि को समर्पण और राष्ट्रीय एकता का प्रतीक मानी जाती है।
संघ की गुरुदक्षिणा परंपरा विशेष उल्लेखनीय है। इसमें स्वयंसेवक वर्ष में एक बार अपनी क्षमता के अनुसार आर्थिक योगदान करते हैं। यही संघ की वित्तीय रीढ़ है, जिससे वह बाहरी स्रोतों पर निर्भर नहीं रहता।
एक स्वयंसेवक का जीवन संघ की दृष्टि से संयम, त्याग और सेवा का जीवन है। उसे राजनीति में जाना हो, शिक्षा में या सेवा कार्यों में—अनुशासन और संगठन की भावना उसकी पहचान होती है।
सरसंघचालकों की भूमिका : संघ की दिशा और विस्तार
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सौ वर्षीय यात्रा को समझने के लिए उसके नेतृत्व को देखना अत्यंत महत्वपूर्ण है। संघ का अब तक का इतिहास केवल गतिविधियों का नहीं, बल्कि उन सरसंघचालकों का भी है, जिन्होंने अलग-अलग समय पर संगठन को नई दिशा दी और बदलते सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों में उसे टिकाए रखा।
डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार (1925–1940)
संघ के संस्थापक हेडगेवार ने संगठन की नींव रखी। उनका प्रमुख योगदान यह था कि उन्होंने शाखा प्रणाली के माध्यम से युवाओं में अनुशासन, सामूहिकता और राष्ट्रभक्ति का बीजारोपण किया। वे स्वयं स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े रहे, लेकिन उन्होंने यह अनुभव किया कि राजनीतिक स्वतंत्रता से भी पहले सांस्कृतिक एकता आवश्यक है। यही सोच संघ का आधार बनी।
एम.एस. गोलवलकर ‘गुरुजी’ (1940–1973)
गुरुजी के लंबे कार्यकाल ने संघ को उसकी वास्तविक पहचान दी। उनके समय में संघ का बौद्धिक विस्तार हुआ, शाखाओं की संख्या बढ़ी और संगठन राष्ट्रीय स्तर पर फैलने लगा। विभाजन, शरणार्थी संकट और गांधी हत्या के बाद लगे प्रतिबंधों जैसे झंझावातों को उन्होंने झेला और संघ को बार-बार पुनर्जीवित किया। गुरुजी ने वैचारिक ढाँचा गढ़ा, जिससे संघ एक विचारधारा-आधारित आंदोलन के रूप में उभरा।
बाला साहेब देवरस (1973–1994)
देवरस ने संघ को आधुनिकता और सामाजिक सरोकारों से जोड़ा। उनके समय में आपातकाल आया, जब संघ के हज़ारों स्वयंसेवक जेल गए और संगठन ने लोकतंत्र की रक्षा में भूमिका निभाई। आपातकाल के बाद उन्होंने सामाजिक समरसता और अस्पृश्यता-निवारण को संघ के एजेंडे में शामिल किया। यह बदलाव संघ की कार्यपद्धति में महत्वपूर्ण मोड़ था।
प्रो. राजेन्द्र सिंह ‘राज्जू भैया’ (1994–2000)
राज्जू भैया को सरलता और मिलनसार स्वभाव के लिए जाना जाता है। उन्होंने संवाद और सहयोग पर बल दिया। उनके समय में संघ ने उत्तर भारत में अपनी जड़ें और गहरी कीं और संगठनात्मक दृष्टि से अधिक खुलेपन का भाव आया।
के.एस. सुदर्शन (2000–2009)
सुदर्शन का कार्यकाल विचारधारात्मक दृढ़ता का रहा। उन्होंने स्वदेशी, आत्मनिर्भरता और भारतीय ज्ञान परंपरा को अधिक मुखर रूप से सामने रखा। हालांकि, उनके समय में संघ और भाजपा के बीच नीतिगत मतभेद भी उभरे, जो यह दर्शाता है कि संघ राजनीतिक सत्ता का अंधानुकरण नहीं करता।
मोहन भागवत (2009–वर्तमान)
भागवत के नेतृत्व में संघ का विस्तार अभूतपूर्व हुआ। शाखाओं की संख्या दोगुनी से अधिक हो गई और संघ ने सामाजिक संवाद पर ज़ोर दिया। वे आधुनिक समय की चुनौतियों के अनुरूप संघ को ढालने की कोशिश कर रहे हैं। मुस्लिम समाज से संवाद, महिलाओं की भूमिका पर चर्चा और पर्यावरण जैसे मुद्दों को प्राथमिकता देने की कोशिश उनके समय में दिखाई देती है।
इस तरह, छह सरसंघचालकों की भूमिकाएँ मिलकर संघ की शताब्दी यात्रा को आकार देती हैं। प्रत्येक ने अपने दौर की चुनौतियों और संभावनाओं के अनुरूप संगठन को नई दिशा दी।
समाज पर प्रभाव
आरएसएस ने भारतीय समाज पर गहरा और दीर्घकालिक प्रभाव डाला है। इसने राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक पहचान को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। संगठन की शाखाओं और कार्यक्रमों के माध्यम से लोगों में सामूहिक चेतना, देशभक्ति और सामाजिक जिम्मेदारी का भाव जगाया गया है। बच्चों से लेकर युवाओं और वृद्धों तक, समाज के हर वर्ग को सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों के प्रति जागरूक किया गया है।
आरएसएस ने समाज में सेवा भावना और लोककल्याण की परंपरा को भी बढ़ावा दिया है। शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक कल्याण से जुड़ी गतिविधियों के जरिए, समाज के कमजोर और पिछड़े वर्गों तक सहायता और समर्थन पहुँचाया गया है। इसके अलावा, संगठन ने स्थानीय समुदायों में नेतृत्व और संगठन क्षमता को भी विकसित किया है, जिससे समाज में सामूहिक प्रयास और अनुशासन की भावना उत्पन्न हुई है।
इस प्रकार, आरएसएस ने समाज को केवल एक संगठित संघ के रूप में नहीं, बल्कि एक सशक्त, जागरूक और सांस्कृतिक रूप से संपन्न समुदाय के रूप में प्रभावित किया है। इसके प्रयासों से समाज में राष्ट्रीय मूल्यों और सांस्कृतिक पहचान की मजबूत नींव रखी गई है, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए मार्गदर्शन का कार्य करती है पत्रकार म.जे. अकबर लिखते हैं: “संघ ने राजनीति से बाहर समाज सेवा, शिक्षा और ग्रामीण विकास में जाकर अपनी प्रासंगिकता बनाए रखी।”
राजनीति पर प्रभाव
आरएसएस ने सीधे राजनीति में भाग नहीं लिया, लेकिन इसके प्रचारकों ने 1951 में जनसंघ और 1980 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी जैसे कई प्रमुख नेता संघ की पृष्ठभूमि से ही उभरे। आज भाजपा देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बन चुकी है और उसे संगठनात्मक रूप से संघ का लगातार सहयोग प्राप्त होता है। संघ की राजनीतिक दृष्टि और संगठनात्मक क्षमता के कारण भाजपा ने राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता में स्थायित्व पाया है। संघ की शाखाओं और कार्यकर्ताओं का व्यापक नेटवर्क चुनावी रणनीतियों और जनसंपर्क में मदद करता है, जिससे भाजपा को मजबूती मिलती है।
इसके अलावा, संघ ने राजनीति के माध्यम से अपने सांस्कृतिक और राष्ट्रवादी विचारों को नीतियों और जनसांस्कृतिक संवाद में शामिल किया है। संघ की प्रशिक्षण प्रणाली ने नई पीढ़ी के नेताओं को तैयार किया, जो आज देश के निर्णय और नीति निर्माण में सक्रिय हैं। इस प्रकार, भाजपा के माध्यम से संघ ने भारतीय राजनीति में स्थायी प्रभाव स्थापित किया है और अपने संगठनात्मक नेटवर्क और विचारधारा का प्रसार किया है। हालांकि आलोचक मानते हैं कि राजनीति में संघ का इतना गहरा हस्तक्षेप उसकी "गैर-राजनीतिक" पहचान पर सवाल उठाता है, फिर भी यह स्पष्ट है कि संघ ने भाजपा के जरिये भारतीय राजनीति में अपने विचार, संगठन और सामाजिक प्रभाव को मजबूत किया है।
आलोचना और विवाद
आरएसएस की यात्रा विवादों से पूरी तरह मुक्त नहीं रही है। संगठन ने भारतीय समाज और राजनीति में कई योगदान दिए हैं, लेकिन उसके कामकाज और विचारधारा को लेकर आलोचनाएँ भी लगातार उठती रही हैं। सबसे प्रमुख विवाद महात्मा गांधी की हत्या (1948) के बाद आया, जब संघ पर अस्थायी रूप से प्रतिबंध लगा। उस समय यह सवाल उठाया गया कि संगठन की विचारधारा और गतिविधियों का हिंसा या चरमपंथ से कोई संबंध तो नहीं है। इसके अलावा, 1975–77 के आपातकाल में संघ को फिर से प्रतिबंध और राजनीतिक संघर्ष का सामना करना पड़ा। इन परिस्थितियों ने संगठन की कार्यशैली और उसकी लोकतांत्रिक पहचान पर गंभीर सवाल खड़े किए।
कुछ सामाजिक और अल्पसंख्यक समूहों के बीच यह डर और असुरक्षा की भावना भी पाई जाती है कि संघ की गतिविधियाँ साम्प्रदायिक तनाव को बढ़ावा दे सकती हैं। आलोचकों का तर्क है कि संघ की विचारधारा में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और एकरूपता पर जोर दिया जाता है, जिससे भारतीय समाज की बहुलता और विविधता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। समाजशास्त्री आशीष नंदी के अनुसार, “संघ लोकतंत्र की ऊर्जा को संगठित करता है, लेकिन उसकी एकरूपता की चाह भारतीय बहुलता से टकराती है।” इसका अर्थ है कि संघ लोगों को संगठित और सक्रिय करता है, लेकिन उसकी सांस्कृतिक और वैचारिक एकरूपता की कोशिश कभी-कभी समाज में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और तनाव को बढ़ावा देती है।
अलग-अलग समय में उठी आलोचनाओं में यह भी शामिल है कि संघ के प्रभाव से कभी-कभी हिंदू राष्ट्रवाद को बढ़ावा मिलता है, जो अल्पसंख्यकों के लिए असुरक्षा की भावना पैदा कर सकता है। इसके अलावा, संगठन के कार्यकर्ताओं की भूमिका, राजनीतिक दलों, जैसे भाजपा के माध्यम से, देश की राजनीति में सांप्रदायिक विभाजन को बढ़ाने के आरोपों के साथ जुड़ी रहती है। आलोचक यह मानते हैं कि संघ का प्रभाव कभी-कभी धार्मिक बहुलता और सामाजिक सहिष्णुता के लिए चुनौती बन सकता है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि आरएसएस ने भारतीय समाज और राजनीति में अपनी छवि मजबूत की है, लेकिन उसकी यात्रा विवादों, आलोचनाओं और सामाजिक चिंताओं से घिरी रही है। संगठन का योगदान महत्वपूर्ण है, लेकिन साथ ही इसके विचारधारा और गतिविधियों के कारण हिंदू राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता के बढ़ने की आलोचना भी लगातार होती रही है।
गंभीर टिप्पणीकारों की भिन्न राय
इसके विचारक और आलोचक दोनों ही इसे भारतीय समाज की विविधता और बहुलता के संदर्भ में विभिन्न दृष्टिकोणों से देखते हैं।
वाल्टर एंडरसन ने अपने अध्ययन में कहा है, “संघ ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को मुख्यधारा में स्थापित कर दिया।” उनका यह कथन इस बात की ओर संकेत करता है कि आरएसएस ने भारतीय समाज में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की विचारधारा को प्रचलित किया, जो भारतीयता को एक सांस्कृतिक पहचान के रूप में प्रस्तुत करता है। इस विचारधारा के अनुसार, भारत की पहचान हिंदू संस्कृति और परंपराओं से जुड़ी हुई है, और यह विचारधारा भारतीय समाज की विविधता को एकरूपता में बदलने की प्रवृत्ति रखती है।
रामचंद्र गुहा, जो एक प्रसिद्ध इतिहासकार हैं, ने आरएसएस की आलोचना करते हुए कहा, “संघ बहुलतावादी भारतीय परंपरा से अलग एक संकीर्ण धारा है।” उनका यह कथन इस बात की ओर इशारा करता है कि आरएसएस की विचारधारा भारतीय समाज की बहुलता और विविधता के विपरीत है। उनके अनुसार, संघ की विचारधारा में एकरूपता की चाह है, जो भारतीय समाज की विविधता को नकारती है।
आशीष नंदी, जो एक समाजशास्त्री हैं, ने कहा है, “संघ लोकतंत्र की ऊर्जा को संगठित करता है, लेकिन उसकी एकरूपता की चाह भारतीय बहुलता से टकराती है।” उनका यह कथन इस बात की ओर संकेत करता है कि जबकि आरएसएस लोकतंत्र की प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी करता है, उसकी विचारधारा भारतीय समाज की बहुलता और विविधता के साथ सामंजस्य नहीं बैठाती। उनके अनुसार, संघ की विचारधारा में एकरूपता की चाह है, जो भारतीय समाज की विविधता के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकती है।
म.जे. अकबर, जो एक पत्रकार और लेखक हैं, ने कहा है, “राजनीति से बाहर समाज सेवा में जाकर संघ प्रासंगिक बना।” उनका यह कथन इस बात की ओर इशारा करता है कि आरएसएस ने राजनीति से बाहर निकलकर समाज सेवा के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई है। इसके माध्यम से उसने भारतीय समाज में अपनी उपस्थिति दर्ज की है और समाज के विभिन्न वर्गों के बीच अपनी स्वीकार्यता बढ़ाई है।
इन उद्धरणों से यह स्पष्ट होता है कि आरएसएस की विचारधारा और उसकी गतिविधियाँ भारतीय समाज की विविधता और बहुलता के संदर्भ में विभिन्न दृष्टिकोणों से देखी जाती हैं। जहाँ कुछ विचारक इसे भारतीय समाज की एकता और सांस्कृतिक पहचान के रूप में देखते हैं, वहीं अन्य इसे समाज की विविधता और बहुलता के लिए चुनौतीपूर्ण मानते हैं।
भविष्य की चुनौतियाँ और संभावनाए
भारतीय समाज अपनी बहुलता और विविधताओं के लिए जाना जाता है। यहाँ विभिन्न धर्म, भाषाएँ, संस्कृति और परंपराएँ एक साथ मिलकर समाज की जटिल लेकिन समृद्ध संरचना बनाती हैं। ऐसे समाज में किसी भी संगठन के लिए चुनौती यह होती है कि वह अपनी विचारधारा और सांस्कृतिक पहचान को मजबूत बनाए, लेकिन समाज की बहुलता और विविधता का सम्मान भी करे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के लिए यह संतुलन महत्वपूर्ण है, क्योंकि उसकी विचारधारा में एकरूपता की प्रवृत्ति स्पष्ट है। संगठन का प्रयास यह होता है कि वह समाज में अपने मूल्यों को स्थापित करे, लेकिन साथ ही विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच विश्वास और सामंजस्य भी बनाए रखे।
अल्पसंख्यक समुदायों में विश्वास निर्माण इसके लिए विशेष रूप से आवश्यक है। संघ के आलोचकों का तर्क है कि उसके प्रभाव से कभी-कभी धार्मिक और सांप्रदायिक विभाजन बढ़ सकते हैं। इसीलिए संघ ने समाज सेवा, शिक्षा, स्वास्थ्य और सामुदायिक कार्यक्रमों के माध्यम से यह संदेश देने की कोशिश की है कि उसका उद्देश्य केवल एक विशेष समुदाय तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे समाज की भलाई और एकजुटता है। इस दृष्टिकोण से संघ न केवल अपने कार्यकर्ताओं को सक्रिय करता है, बल्कि समाज के कमजोर और पिछड़े वर्गों तक अपनी पहुंच और स्वीकार्यता भी बढ़ाता है।
डिजिटल युग में नई पीढ़ी तक अपनी पहुंच बनाना भी एक बड़ी चुनौती है। आज के युवा सोशल मीडिया और तकनीकी प्लेटफ़ॉर्म के माध्यम से तेजी से जुड़ते हैं। आरएसएस ने इस बदलाव को समझते हुए अपनी गतिविधियों और संदेश को डिजिटल माध्यमों पर प्रस्तुत करना शुरू किया है। इसका उद्देश्य युवा वर्ग को अपने सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों के प्रति जागरूक करना और उन्हें सक्रिय रूप से संगठन से जोड़ना है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी वैचारिक व्याख्या को स्पष्ट करना भी संगठन के लिए महत्वपूर्ण है। वैश्विक मंच पर अपने दृष्टिकोण और सांस्कृतिक धारणाओं को प्रस्तुत करने के माध्यम से संघ यह संदेश देता है कि उसका उद्देश्य केवल राष्ट्रीय सीमाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि वैश्विक स्तर पर भारत की सांस्कृतिक पहचान और विचारधारा को समझाने और स्थापित करने का है।
इस प्रकार, आरएसएस ने अपने संगठनात्मक प्रयासों और सामाजिक गतिविधियों के माध्यम से बहुलता और एकरूपता के बीच संतुलन बनाने, समाज में विश्वास स्थापित करने, नई पीढ़ी को आकर्षित करने और अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपने विचारों को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। यह प्रक्रिया संगठन की रणनीतिक और वैचारिक गहराई को दर्शाती है और यह स्पष्ट करती है कि संघ केवल एक संगठन नहीं, बल्कि भारतीय समाज और संस्कृति में अपनी प्रभावशीलता स्थापित करने का निरंतर प्रयास कर रहा है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शताब्दी यात्रा योगदान, विवाद और वैचारिक बहस का मिश्रण है। यह संगठन करोड़ों स्वयंसेवकों के अनुशासन और सेवा का प्रतीक है, लेकिन साथ ही बहुलता और समावेशिता पर प्रश्न भी खड़े करता है।
फिर भी आज की स्थिति यह है कि संघ को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। इसकी राजनीतिक और सामाजिक उपस्थिति इतनी मज़बूत है कि एक ओर इसके दो स्वयंसेवक प्रधानमंत्री पद तक पहुँचे हैं, वहीं शताब्दी वर्ष पर केंद्र सरकार ने डाक टिकट जारी कर इसके योगदान को मान्यता दी है। आने वाले शतक में यह संगठन किस दिशा में जाएगा, यह न केवल संघ बल्कि पूरे भारतीय समाज और लोकतंत्र की परीक्षा होगी।
बहुत सुंदर लिखा है भाई अपने
ReplyDeleteOutstanding 🌺
ReplyDelete