बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ: सफलता की मिसालें और अधूरे वादे



2012 के दिसंबर में हुए निर्भया कांड ने देशभर में बेटियों की सुरक्षा और सम्मान का मुद्दा गरमाया। यह ऐसा समय था, जब लोगों की नाराजगी ने यूपीए सरकार की सत्ता को उखाड़ फेंका। इस माहौल में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में देश की बागडोर संभाली। उन्होंने अपने संकल्प पत्र के जरिए बेटियों की सुरक्षा और समानता के लिए बड़े वादे किए। 26 मई 2014 को प्रधानमंत्री बनने के 8 महीने के भीतर ही नरेंद्र मोदी ने हरियाणा के पानीपत से ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना का शुभारंभ किया।  

पानीपत: बदलाव की शुरुआत का गवाह
22 जनवरी 2015 की ठंडी सुबह हरियाणा के पानीपत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना का शुभारंभ किया। मंच पर तत्कालीन महिला बाल विकास मंत्री मेनका गांधी, हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर और मशहूर अदाकारा माधुरी दीक्षित मौजूद थीं। इस योजना का उद्देश्य लिंगानुपात में सुधार करना, भ्रूण हत्या को रोकना और लड़कियों को शिक्षा का अधिकार दिलाना था।  



पानीपत को इस योजना के लिए इसलिए चुना गया क्योंकि हरियाणा लिंगानुपात के सबसे खराब आंकड़ों वाला राज्य था। 2014 में हरियाणा का लिंगानुपात केवल 876 था। हालांकि, 10 सालों में इसमें सुधार हुआ और यह आंकड़ा 916 तक पहुंचा। लेकिन पानीपत, जो इस योजना का केंद्र था, वहां सुधार की गति अपेक्षाकृत धीमी रही।  

धारूहेड़ा: बेटियों के सम्मान की मिसाल
हरियाणा के धारूहेड़ा गांव को एक समय बेटियों के लिए असुरक्षित माना जाता था। भ्रूण हत्या यहां आम बात थी, और बेटियों का जन्म होने पर मातम सा माहौल बन जाता था। लेकिन ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ ने यहां बदलाव की लहर पैदा की।  


गांव की सरपंच सुनीता देवी बताती हैं, “आज हमारे गांव में बेटियों का जन्म उत्सव की तरह मनाया जाता है। पंचायतों ने भ्रूण हत्या के खिलाफ कड़े कदम उठाए और बेटियों की शिक्षा को बढ़ावा दिया।”  
10 सालों में यहां लिंगानुपात 800 से बढ़कर 965 हो गया। स्कूलों में लड़कियों की उपस्थिति 70% से बढ़कर 92% हो गई। यह बदलाव ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के सफल क्रियान्वयन की गवाही देता है।  

बलिया: शिक्षा से बदली तकदीर
उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में लड़कियों की शिक्षा की स्थिति 2015 से पहले बेहद खराब थी। स्कूल छोड़ने की दर 40% से अधिक थी। लेकिन इस योजना ने यहां माता-पिता की मानसिकता बदली। जिला प्रशासन ने स्कूलों में शौचालय, मुफ्त किताबें और वर्दी जैसी सुविधाओं पर जोर दिया।  

बलिया की 16 साल की मंजू की कहानी प्रेरणादायक है। मंजू, जो स्कूल छोड़ने वाली थी, इस योजना के तहत प्रेरित होकर पढ़ाई जारी रखी। आज वह दिल्ली में एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम कर रही है। मंजू कहती हैं, “यह योजना मेरे जीवन का मोड़ साबित हुई।”  

बलिया का यह बदलाव दिखाता है कि सही दिशा में किए गए प्रयास कैसे समाज में सकारात्मक प्रभाव डाल सकते हैं।  



बलिया: मेरे दिल का जुड़ाव और बेटियों की नई उम्मीद
जब मैंने ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना के तहत बलिया का नाम सुना, तो मेरे दिल में एक अनोखी खुशी उमड़ पड़ी। यह खुशी सिर्फ इसलिए नहीं थी कि बलिया मेरे अपने जिले में से एक है, बल्कि इसलिए भी कि यह वह जगह है, जहां सरकारी योजनाएं अक्सर दम तोड़ देती थीं। लेकिन इस बार कहानी अलग थी।  

इस योजना के तहत बलिया की लड़कियों को सपने देखने और उन्हें पूरा करने का अवसर मिला। स्कूल ड्रॉपआउट रेट में गिरावट दर्ज की गई और दाखिलों में इज़ाफा हुआ। यह देखकर मुझे बेहद गर्व महसूस हुआ।  

महिलाओं के प्रति मेरा जुड़ाव बहुत गहरा है। मैंने अपने घर में काम करती महिलाओं को संघर्ष करते देखा है। उनकी मेहनत, समर्पण और हमारे जीवन में उनकी अहमियत ने मुझे हमेशा प्रेरित किया है। बलिया की इन बेटियों की उपलब्धियों को देखकर मेरी आंखों में एक अलग सी चमक आ गई थी। अगर आप उस पल मेरे साथ होते, तो शायद उस चमक और खुशी को महसूस कर पाते।  

यह सिर्फ बलिया से मेरे भावनात्मक जुड़ाव की बात नहीं है, बल्कि यह खुशी इसलिए भी है कि एक योजना ने अपने उद्देश्य को हासिल किया। इस योजना ने बलिया पहुंचकर न केवल दम तोड़ा, बल्कि पूरे देश के लिए एक प्रेरणादायक कहानी बन गई। यह दिखाता है कि अगर इच्छाशक्ति और प्रयास हो, तो बदलाव मुमकिन है।  

बलिया की यह कहानी सिर्फ एक जिले की नहीं, बल्कि हर उस जगह की प्रेरणा है, जहां बेटियों के सपनों को पंख देने की जरूरत है।

खामियां: कहां अधूरी रह गई योजना
‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के कई सकारात्मक पहलू हैं, लेकिन इसकी कई खामियां भी उजागर हुईं।  
1. वित्तीय पारदर्शिता की कमी :  योजना के पहले पांच वर्षों में 78% बजट प्रचार-प्रसार पर खर्च हुआ, जबकि जमीनी स्तर पर काम के लिए सीमित संसाधन उपलब्ध थे।  
2. ग्रामीण इलाकों में धीमी प्रगति:  बिहार और झारखंड जैसे राज्यों में लड़कियों की स्कूल छोड़ने की दर अब भी अधिक है।  
3. पितृसत्तात्मक सोच: समाज के कई हिस्सों में बेटियों को अभी भी बोझ माना जाता है। भ्रूण हत्या कानून के डर से तो कम हुई, लेकिन गुप्त रूप से जारी है।  
4.शहरी और ग्रामीण असमानता: योजना का लाभ शहरी क्षेत्रों में अधिक देखा गया, जबकि ग्रामीण इलाकों में इसका प्रभाव सीमित रहा।  



10 साल का मूल्यांकन: भविष्य की राह
‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना ने धारूहेड़ा और बलिया जैसे इलाकों में बदलाव की मिसाल पेश की। लेकिन कई जगहों पर यह योजना अपनी पूरी क्षमता से लागू नहीं हो पाई।  

प्रधानमंत्री मोदी ने 2015 में जो आह्वान किया था, वह आज भी प्रासंगिक है। समाज की सोच में बदलाव और बेटियों को समान अधिकार दिलाने के लिए केवल सरकारी प्रयास नहीं, बल्कि सामूहिक भागीदारी की आवश्यकता है।  

“बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” एक योजना नहीं, बल्कि सामाजिक आंदोलन है, जो हर बेटी के सपनों को साकार करने की उम्मीद जगाता है। 

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