देशभक्ति का ठेका किसके पास? सवालों पर अदालत का हथौड़ा
2014 के बाद देशभक्ति पर सवाल उठाना एक राजनीतिक हथियार बन गया है। आज हालत यह है कि सवाल पूछने वाले को संदेह की नजर से देखा जाता है, चाहे वह पत्रकार हो, सांसद हो या आम नागरिक। सुप्रीम कोर्ट तक इस ट्रेंड का असर दिखने लगा है, जो चिंताजनक है। लोकतंत्र में असहमति और सवाल पूछना देशद्रोह नहीं, बल्कि जिम्मेदार नागरिकता का संकेत है। सोशल मीडिया ने लोगों को आवाज दी है, लेकिन आलोचना को देश विरोधी ठहराने की प्रवृत्ति ने लोकतांत्रिक बहस की नींव हिला दी है। सवाल पूछना लोकतंत्र की सेहत के लिए जरूरी है।
क्या आपको याद है, देशभक्ति पहले दिल का मामला हुआ करती थी? अब लगता है कि यह अदालतों के आदेश और सरकार की ‘मैनुअल’ से तय होगी. पिछले कुछ दिनों में दो घटनाएं हुईं, जिन्होंने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया और शायद आपको भी सोचना चाहिए. 2014 में सत्ता परिवर्तन के बाद से ही एक नया ट्रेंड देखने को मिला है. अगर आप उनसे ज़रा भी मत भिन्नता जाहिर कीजिए तो तुरंत शक की निगाह से देखा जाने लगा जाता है और अगर आपने कोई भी ऐसा सवाल पूछ लिया जो सरकार को असहज करता हैं तो आपको एंटी नेशनल देशद्रोही पेंट करने में समय नहीं लगाया जाता है. अगर आप जरा पढ़े लिखे हैं तो आपको अर्बन नक्सल तक घोषित कर दिया जाता है.
ऐसा पहला मामला आया महाराष्ट्र से जहां, मुंबई हाईकोर्ट ने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया यानी सीपीआई को गाजा के समर्थन में प्रदर्शन की इजाजत देने के लिए लगाई गई याचिका को खारिज कर दिया. साथ ही यह ज्ञान भी दिया की आप देश के मुद्दों पर प्रदर्शन कीजिए कहां विदेश में जा रहे हैं. यह आपका कैसा देश प्रेम है जो विदेश के लिए दिख रहा है भारत के विषयों पर नहीं.
हाइकोर्ट ने सीपीआई को उस आजाद मैदान में प्रदर्शन करने से मना किया, जहां रोज तरह-तरह के राजनीतिक और सामाजिक प्रदर्शन होते हैं. सीपीआई अबतक की मानव त्रासदी की दूसरी सबसे बड़ी घटना फिलिस्तीन पर हो रहे जुल्म के खिलाफ प्रदर्शन करना चाहती है, सभा करना चाहती है तो उसे यही इजाजत नहीं दी गई. फिलिस्तीन जो इस वक्त दुनिया में सबसे अधिक रम का हकदार है, उनके साथ एक एकजुटता दिखाने के लिए भारत जो अपने आप को सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश बताता है, उसकी एक अदालत ने मना कर दिया. इजाजत न देना तो फिर भी ठीक था. आपको इन दोनों जजों के नाम भी बता दूं, एक है जस्टिस रविंद्र घोंघे और गौतम अनखड़. इन दो जजों की पीठ ने सीपीआई को भारत के राष्ट्रवाद और देशभक्ति के ऊपर एक लंबा लेक्चर दिया.
मैं कम्युनिस्टों का गुणगान नहीं कर रहा. लेकिन जब पंजाब में आतंकवाद के दिन थे तब भिंडर वाला के आतंकियों ने जिस राजनीतिक दल के कार्यकर्ताओं को सबसे अधिक मारा था, वो सीपीआई के लोग थे. भिंडरवाला के नाम से मशहूर जैल सिंह के आतंकियों ने कम्युनिस्टों और वामपंथी कार्यकर्ताओं को चुन चुन कर मारा था. शायद जज साहब को यह बात नहीं पता रही होगी.
उन्होंने कह दिया कि देश में नालियां गंदी पड़ी हुई है और तुमको परदेस (फिलिस्तीन) के समर्थन की बात करनी है.
कोर्ट ने न्याय देना छोड़ कर किया यह बताना शुरू कर दिया है कि दुनिया में कहां जुल्म हो रहा है और कहां नहीं? और सबसे बड़ी हैरानी की बात तो यह है कि यह वह हाई कोर्ट डिसाइड कर रहा है जिसका अधिकार क्षेत्र सिर्फ महाराष्ट्र है.
पता नहीं जज साहब को कितनी विदेशी मुद्दों की समझ है या वह जाने कितने ऐसे मुद्दों पर पढ़ते लिखते हैं. लेकिन जितना मैंने पढ़ा है फिलिस्तीन हमारा मित्र राष्ट्र है. बहुत लोग इसके पक्ष में नहीं है लेकिन फिर भी हिंदुस्तान के दोस्तों में फिलिस्तीन का नाम लिया जाता है. हिंदुस्तान के मित्र देश के साथ भारत का कोई राजनीतिक दल अगर अपना समर्थन जताना चाहता है तो न जाने महाराष्ट्र हाई कोर्ट को इससे क्या दिक्कत है? जज साहब कह रहे हैं कि तुम विदेश नीति नहीं समझते, यह सरकार का काम है. जज साहब राजनीतिक लोगों को कह रहे हैं कि आप विदेश नीति नहीं समझ रहे हैं.
क्या इस देश में फिलिस्तीनियों के साथ हमदर्दी जताने के लिए सरकार से इजाजत लेनी पड़ेगी? माना कि भारत सरकार को आज इजराइल बहुत पसंद है लेकिन भारत की मौजूदा मोदी सरकार ने भी 2 नेशन सॉल्यूशन की ही बात करती है. हो सकता है मोदी सरकार को फिलिस्तीन अब गांधी, नेहरू और अटल बिहारी वाजपेई की जितना पसंद ना रह गया हो लेकिन फिर भी अभी उन्होंने अपना स्टैंड नहीं बदला है.
महात्मा गांधी ने 1938 में यह लिखा था कि मेरा दिल यह नहीं मानता कि यहूदी जबरदस्ती फिलिस्तीन में बसे है. फिलिस्तीन अरबों का है. जिस तरह इंग्लैंड अंग्रेजों का है और फ्रांस फ्रांसीसियों का है. यह गांधी ने 1938 में लिखा था. देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू ने 1936 में फिलिस्तीन की जमीन पर यहूदी बसावटों के खिलाफ अंग्रेज सरकार (ब्रिटिश सरकार) को चिट्ठी लिखी थी. नेहरू की कोई उसे वक्त सरकारी हैसियत नहीं थी. लेकिन दुनिया के मामले में नेहरू को दमदार व्यक्तित्व था. दुनिया के बड़े नेताओं में उस वक्त उनकी गिनती होती थी. उसे वक्त दुनिया के जो तीन-चार बड़े नेता थे उसमें नेहरू का नाम आता था. और यह पत्र नेहरू ने प्रधानमंत्री बनने से पहले लिखा था अंग्रेज सरकार को कि यहूदियों को जो वहां बसाया जा रहा है फिलिस्तीन की जमीन पर वह ठीक बात नहीं है गलत बात है. भाजपा के शिखर पुरुष अटल बिहारी वाजपेई ने एक आमसभा में उन्होंने खुलकर कहा था कि फिलीस्तीन अरबों का है अरबों का यानी फिलिस्तीनियों का. उन्होंने कहा था कि फिलिस्तीन अरबों का है और उनके पास ही रहना चाहिए. एक आक्रमणकारी जो कि इजरायल था, एक आक्रमणकारी को अपने हमले से जीती हुई कब्ज की हुई जमीन पर बसने का अधिकार नहीं दिया जा सकता. जो पैमाना हमारे अपने ऊपर लागू होता है वही फिलिस्तीन और इजराइलियों पर भी लागू होता है. यह बयान वाजपेई ने तब दिया था जब वह मोरारजी देसाई की कैबिनेट में विदेश मंत्री थे.
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हिंदुस्तान पहले गैर अरब देश था इतिहास का जिसने 1974 में फलस्तीन लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन FLO, यासर अरफात की नेतृत्व वाली फिलीस्तीन मुक्ति संगठन को फिलिस्तीनी जनता का वैध प्रतिनिधि कांस्टीट्यूशनल रिप्रेजेंटेटिव माना था और 1988 में फिलीस्तीन को देश के रूप में भी मान्यता दी थी. कनाडा और फ्रांस अब फिलिस्तीन को देश के रूप में मान्यता दे रहे हैं, हमने बहुत पहले दे दिया था.
जज साहब के हिसाब से तो 1971 में इंदिरा गांधी द्वारा बांग्लादेश बनाना भी देशभक्त नहीं थी क्योंकि उन्होंने देश के जरूरी मुद्दों से अलग हटकर एक अलग देश बनाया. आज दुनिया में सबसे अधिक जुल्म का शिकार फिलिस्तीन है. 60000 से अधिक लोगों को मार दिया गया है जिसमें एक तिहाई से ज्यादा बच्चे और औरतें हैं. वह भूख से मार रहे हैं लेकिन कोई नहीं सुन रहा है उनकी.
अगर मुंबई हाईकोर्ट को महाराष्ट्र की नालियों की इतनी ही चिंता है तो वह खुद PIL दर्ज क्यों नहीं कर रहा है? जो कि उनके अधिकार क्षेत्र में भी आता है. सरकार के खिलाफ केस दर्ज करें खुद नोटिस लें और उसे पर सरकार से जवाब मांगे लेकिन वह काम तो आप नहीं करेंगे.
शायद न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठे-बैठे आप यह भूल गए हैं कि इस देश में रहते हुए भी हम भारत सरकार की नीति से असहमत रह सकते हैं. यही लोकतंत्र है जो हमको अधिकार देता है कि हम चाहे तो सरकार की किसी नीति से असहमत हो सकते हैं. सरकार की नीति से सहमति अनिवार्य नहीं है, इस देश की नागरिकता के लिए। यह हमारी संवैधानिक जिम्मेदारी नहीं है कि हम सरकार की नीति से सहमत रहे. यह सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी है, राजनीतिक जिम्मेदारी है कि देश की जनता को अपनी नीतियों के लिए सहमत कराने की कोशिश करें. भारत सरकार साबित करे लोगों के सामने कि फिलिस्तीन को ले उसकी चुप्पी जो है वह जायज है.
मैं हैरान हो रहा हूं इस बात को लेकर कि जब दुनिया के तमाम देश गजा की हमदर्द बन रहे हैं उसे वक्त हमारे यहां का एक हाईकोर्ट उनके साथ खड़े होने को गैर वाजिब बता रहा है. जिस गाजा को लेकर 26 यूरोपियन देशों ने अभी एक प्रस्ताव पारित किया है. इस क्राइसिस के बीच में, जंग के चलते हुए कनाडा और फ्रांस उसे मान्यता दे रहे हैं। फिलिस्तीन को जो अबतक एक देश के रूप में नहीं दी थी, अब दे रहे हैं. लोग उनके साथ में खड़े हो रहे हैं.
जहां पे बुजुर्ग और बच्चे भूख से मारे जा रहे हैं. महिलाएं अपने मुर्दा बच्चों को छाती से लगा के बैठी है क्योंकि उनको भरोसा नहीं हो रहा कि उनके घर का चिराग उजड़ गया है जहां ऐतिहासिक जुल्म हो रहा है. अरे! जज साहब थोड़ी मानवता दिखाओ जरा देश दुनिया भी देखो. कब तक ऊंची कुर्सी पर बैठकर नालियों पर ध्यान लगाए रहोगे. नाली से परे भी कुछ देख पाने की सोच विकसित करो.
अगर मान लीजिए यह मी लॉर्ड द्वितीय विश्व युद्ध के पहले रहते और अगर सीपीएम या कोई दूसरी पार्टी अगर यह मांग करती की, हम हिटलर के खिलाफ प्रदर्शन करना चाहते हैं. हम हिटलर केखिलाफ आम सभा करना चाहते हैं. तो जज साहब आप उस दिन गांधी को भी मना कर देते कि हिटलर के खिलाफ आप प्रदर्शन नहीं कर सकते. आप देश के भीतर की जो भुखमरी है इसके बारे में बात करो. क्यों यहूदियों की परवाह कर रहे हो और क्यों हिटलर के खिलाफ आम सभा करोगे? यह सोच है आपकी।
मैं आपको बताऊं जज साहब आपको कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है ऐसी नसीहत देने का. मेरी कानून की बहुत मामूली सी समझ कहती है कि आप अपने दायरे से बहुत बाहर जाकर इस तरह की बातें कर रहे हैं. आपको कोई हक नहीं है इस तरह की बातें करने का जो आपने किया है.
गाजा को लेकर पूरी दुनिया में अगर लोग हिमायती हैं, अगर उनके हमदर्द हैं, अगर उनको मदद भेजना चाहते हैं तो चाहे वो भेज सकते हैं चाहें वो किसी भी देश में रहे.
मैं आपको एक बात बताऊं जज साहब, आप अगर हिमायती हैं इजराइल के तो जरा पढ़ लीजिएगा इजराइल का एक सबसे सम्माननीय अखबार है हारतेज़ (Haaretez). उसमें बड़े-बड़े कॉलमिस्ट, पत्रकार इस बात को लिख रहे हैं कि इजराइल फिलिस्तीन पर किस तरह का जुल्म कर रहा है। इजराइल के एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री है एहुड ओल्मर्ट (Ehud Olmert). ओल्मर्ट ख़ुद 2006 से 2009 तक वहां के प्रधानमंत्री रह चुके हैं. उन्होंने बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में कहा की, इजराइल फिलिस्तीन में जो कर रहा है वह नस्लवादी जनसंहार हैं. उन्होंने इसे एथेनिक क्लींजिंग करार दिया है. लोगों के एक पूरे के पूरे नल को मार डालना अक्षम्य अपराध है जो कभी हिटलर ने किया था यहूदियों के साथ. यह कहा है इजराइल के एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री ने. मैंने खुद इंटरव्यू सुना है. आप भी सुना कीजिए जज साहब थोड़ा सा. इजराइल के लोगों को सुनिए, पढ़िए.
Former Isreali PM Ehud Olmert Interview to BBC
ऐसा नहीं है कि सिर्फ भारत में इसराइल के खिलाफ और फिलिस्तीन के समर्थन में प्रदर्शन हो रहे हैं. कई अन्य देश भी गजपति के लोगों के साथ अपनी हमदर्दी जाता रहे हैं. अमेरिका में जो प्रदर्शन हो रहे हैं उसमें बहुत सारे यहूदी भी शामिल है. इजरायल अमेरिका का मित्र देश है लेकिन फिर भी उसे देश में उसके खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं. और वहां के तो छात्र इसराइल के इस बर्बरता को गलत मानते हुए नारे लगा रहे हैं. लेकिन आप यहां इजरायल के पक्ष में बुलेट प्रूफ ढाल बनकर खड़े हो गए.
माफ कीजिएगा जज साहब, लेकिन आपका सर्विस कंडक्ट रूल आपको इस बात की इजाजत देता है या नहीं, मुझे नहीं पता लेकिन भारत का संविधान आपको व्यक्ति के रूप में इसकी इजाजत देता है कि आप अपने पैसों से दिल्ली जाएं और वहां फिलिस्तीन दूतावास के सामने प्रदर्शन करें.
फिलिस्तीनियम के हमदर्द बन रहे भारतीयों को अपने देशद्रोही बता दिया और न जाने यह इस देश से गद्दारी कैसे हो गई है?
आप तो एक ऐसे शहर में रहते हैं जो कॉस्मापॉलिटन सिटी है जहां हर जाति धर्म और दुनिया भर के आए लोग एक साथ रहते हैं. लेकिन एक ऐसे शहर में भी रहकर आपने आपने कुएं के भीतर वाली तलहटी सोच का परिचय दिया है. शायद आपने नहीं पढ़ा कि इस पूरे मसले पर भारत सरकार का क्या पक्ष है, लेकिन मैंने पढ़ा है. भारत दो देशों की व्यवस्था का समर्थन करता है. तो क्या भारत की विदेश नीति को देश विरोधी बता रहे हैं? या फिर आप अपने मन से तय कर रहे हो कि भारत की विदेश नीति क्या है? जज साहब आज आप मुझको देशभक्ति नहीं सिखा सकते. मेरी देशभक्ति के पैमाने हिंदुस्तान की सरहदों से बाहर तक जाते हैं. मुझको मालूम है कि हिंदुस्तानी के रूप में मेरी अंतरराष्ट्रीय भूमिका क्या है? हमने गांधी और नेहरू के वक्त से सीखा हुआ है कि देश की सरहदें बहुत ही तंग रहती हैं। अगर इंसानियत की बात हमको करना है तो हमको दूर-दूर तक जाना पड़ेगा।
जज साहब, देश की सरहद तो 1971 में बांग्लादेश नहीं पहुंच पा रही थी. पूर्वी पाकिस्तान था वो. वहां तो देश की सरहद खत्म हो जा रही थी. लेकिन इंदिरा गांधी ने घुस के मारा वहां पाकिस्तान को. दो टुकड़े कर दिए पाकिस्तान के. तो दूसरे देश जा कर भी देशभक्ति करनी पड़ती है. इंसानियत का साथ देना पड़ता है. पूरे दुनिया में इंसानियत का साथ देना पूरे दुनिया के लिए देशभक्ति है. आप देशभक्ति को इतने तंग परिभाषा में मत बांधिए.
लगे हाथों इस देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था यानी सुप्रीम कोर्ट की भी बात कर ली जाए. जिसने अपने सबोर्डिनेट कोर्ट के कम को सही मानते हुए, उसने भी इस "टूलकिट गैंग" में शामिल हो गई है, जो अब देशभक्ति का पथ पढ़ा रहा है.
सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस दीपांकर भट्टाचार्य और ए जी मसीही की बेंच ने राहुल गांधी के एक मामले को सुनवाई करते हुए उनकी देशभक्ति का पैमाना बता दिया. राहुल गांधी ने लद्दाख में चीन के कब्ज़े पर सरकार से सवाल पूछा सीधा, साफ, और वही जो हम सब जानना चाहते हैं. लेकिन कोर्ट ने उन्हें लताड़ लगाई "ऐसे सवाल संसद में पूछो सोशल मीडिया पर नहीं." अब माननीय सर्वोच्च न्यायालय बता रहा है कि आपको कहां सवाल पूछना है और कहां नहीं? साथ ही इंसान की देशभक्त होने का सर्टिफिकेट भी जारी कर रहा है. और एक ऐसे इंसान की देशभक्ति का पैमाना बता रहा है जो भारत में पैदा हुआ, भारत के लोकसभा में नेता विपक्षी दल है और जिसके खुद के दो अपने लोगों ने इस देश के लिए कुर्बानियां दी हैं.
चलिए माना की राहुल गांधी के पास सांसद है सवाल पूछने के लिए लेकिन हमारा क्या? हम जनता कहां सवाल पूछे? क्या हमें सिर्फ ‘सेल्फी विद पीएम’ पोस्ट करने का अधिकार है, सवाल पूछने का नहीं? लोकतंत्र में संसद एक मंच है, लेकिन क्या सड़क, सोशल मीडिया, या प्रेस कॉन्फ्रेंस पर सवाल पूछना अब बगावत है? क्या हर सवाल अब ‘पॉलिटिकल अजेंडा’ के चश्मे से देखा जाएगा?
राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी से मेरी कोई हमदर्दी नहीं है. उनकी कुनबापरस्ती को लेकर मैं सोशल मीडिया पर लिखा है, आप देख पढ़ सकते हैं. लेकिन वह कभी हिंसा की बात नहीं करते हैं. चाहे इस देश के लोग उन्हें पप्पू कहें या कुछ और उन्होंने कभी नफरत की बात नहीं की है. वह यूनियन कार्बाइड के कारखाने की तरह जानलेवा नहीं है, जिससे जानलेवा गैस रिसिव होता हैं और उसमें सैकड़ो भोपाल वासियों की मौत हो जाती हैं.
यह तो सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यों की पीठ कह रही है. लेकिन अगर उच्च न्यायालय की सबसे बड़ी (संवैधानिक पीठ) 13 जजों की पीठ भी यह कहती की राहुल गांधी तुम सच्चे भारतीय होते तो ऐसा बयान नहीं देते तो उसे पर भी आपत्ति करता. हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत सुप्रीम कोर्ट भी एक संस्था है. लेकिन संविधान की भावना इन सब संस्थाओं से ऊपर है और लोकतंत्र संविधान से भी ऊपर है.
क्या कहा राहुल गांधी ने की, भारत की 2000 वर्ग किलोमीटर जमीन पर चीन ने कब्जा कर लिया. इस बात को तो बहुत सारे लोगों ने कहा था. मुझको अगर ठीक ध्यान पड़ता है तो अरुणाचल प्रदेश के एक सीट से भाजपा के एक सांसद ने भी ऐसा ही कहा था कब्जे के बारे में. यह प्रदेश तो सरहदी इलाका है.
चलिए मान लेते हैं कि वो हिस्सा 2000 नहीं रहा होगा, 1900 रहा होगा, 1100 रहा होगा, अरे 800 ही रहा होगा रहा होगा. लेकिन क्या हमारे देश में नापतोल के बयान दिए जाते हैं?
अब अपनी राष्ट्रीयता साबित करने के लिए, नाप तोल किया जाएगा. तो फिर हर भारतवासी को सुनार के पास जाकर अपनी राष्ट्रीयता का तौल कराना चाहिए. क्योंकि सुनार के पास जो तराजू रहता है वो एकदम माइक्रो ग्राम तक बता देता है. सुप्रीम कोर्ट को क्या करना चाहिए कि एक फरमान जारी करना चाहिए और बताना चाहिए कि अगर कोई व्यक्ति 22 कैरेट या 24 कैरेट से नीचे का होगा तो फिर उसकी राष्ट्रीयता में कमी है. उसकी देशभक्ति में कमी है.
हिंदुस्तान के किसी नागरिक को जो एक निर्वाचित सांसद भी है, जो हिंदुस्तान में पैदा हुआ है. जिसके ऊपर हिंसा का कोई मामला भी दर्ज नहीं है. उसके बारे में यह कहना कि तुम पाकिस्तान के पक्ष में बयान देते हो. पाकिस्तान के हिमायती हो. तुम जो कहते हो पाकिस्तान के पक्ष में जाता है.
यह हिंसा है या जो राहुल गांधी कह रहे हैं वो हिंसा?
यह बात तो बहुत सारे लोग अलग-अलग तरह के शब्दों में बोल चुके. कई तरह की सरहद गिनाई गई.
गलवान घाटी वहां पे टकराव हुआ. भारत के और चीन के सैनिकों का. क्यों टकराव होगा सरहद पर? कितने लोग मारे गए अभी तक रहस्य की बात है. आपको याद होगा कोविड के समय टकराव हुआ था, उसका वीडियो भी सामने आया था. कई तरह की घटनाएं हुई थी सरहद के इलाके में. कुछ चरवाहों को ले गए थे. उधर किसी को कुछ किए थे. याद है ना आपको? कहीं अरुणाचल प्रदेश की बात आई थी. कहीं लद्दाख की बात आई थी. बड़ी लंबी सरहद है भारत और चीन के बीच. बहुत बड़ा हिस्सा डिस्प्यूटेड है. चीन ने कब्जा किया होगा, यह मैं नहीं जानता किया था या नहीं किया था. लेकिन अगर बहुत सारे फौजी अफसर कह रहे थे इस बात को. अगर सरहदी इलाके के भाजपा सांसद यह बात कह रहे थे कि हमारे इधर कब्जा हो गया है. तो उसको अगर राहुल गांधी ने कहा तो उससे राहुल गांधी के भारतीय होने पर सवाल उठ गया?
ये नागरिकता तय करने का काम तो चुनाव आयोग कर रहा था ना बिहार में. राष्ट्रहित और राष्ट्रवाद क्या है? इसको बॉम्बे हाई कोर्ट तय कर रहा है. छोटे मियां तो छोटे मियां, बड़े मियां शुभान अल्लाह. मैं कोई इस्लाम का प्रचार नहीं कर रहा हूं. यहां पे मैं बस एक कहावत आपके सामने दोहरा रहा हूं.
राहुल गांधी की राष्ट्रीयता तय की जा रही है। अगर आप एक सच्चे भारतीय होते तो आप ऐसा बयान नहीं देते. संसद में पूछिए सोशल मीडिया पर नहीं. वैसे तो इस देश के 700 से अधिक सांसद (अलग-अलग पार्टियों के) वो सोशल मीडिया पर दिन भर में 10- 20 बयान देते हैं. नेता अपने वीडियो पोस्ट करते हैं. कई तरह के और अब तो रिल्स भी बनाते हैं.
शायद सुप्रीम कोर्ट के जज लोग सिलेक्टिव तौर पर सोशल मीडिया देखते हैं. उनकी निगाह राहुल गांधी के सवालों पर ही पड़ी होगी. लेकिन चुनाव के समय हिंसक बयान देने वाले वीडियो उनके आंखों के सामने से गुजर गया होगा और उन्होंने ध्यान नहीं दिया होगा. मैंने तो चुनाव के समय भी बहुत ही हिंसा के बयान वाली वीडियो भी देखे हैं. बड़े-बड़े नेताओं के देखे हैं.
वैसे तो सुप्रीम कोर्ट का खुद का निर्देश है कि हिंसक बयान की वीडियो पर आपको तुरंत मामला दर्ज करते हुए कार्रवाई करनी है. हेट स्पीच के बारे में कोर्ट ने बार-बार यह निर्देश दिए हैं.
बड़े-बड़े नेताओं के बड़े-बड़े वीडियो जो उन्होंने सोशल मीडिया पर पोस्ट किए थे. न जाने सुप्रीम कोर्ट का उनके बारे में क्या राय है? अब उनके सच्चे भारतीय होने के बारे में सुप्रीम कोर्ट क्या कहेगा मुझे नहीं पता?
सुप्रीम कोर्ट को अपने निर्देश से एक सच्चा भारतीय आयोग बना देना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट के दो जज हैं, यह काम इनके अधिकार क्षेत्र में भी है....सच्चा भारतीय आयोग बनाना.
अभी भारतीय बनाने का काम चल रहा है. एक नागरिकता की जांच करने का काम बिहार में चुनाव आयोग कर रहा है. कल के दिन जनगणना वाले भी तय करने लगेंगे कि तुम भारत के नागरिक हो या नहीं हो? हो सकता है जनगणना कर्मी, कॉलर पकड़ के लोगों को सरहद के बार बाहर फेंकने भी चले जाएं.
लेकिन राहुल गांधी सच्चा भारतीय अगर होता तो ऐसा बयान नहीं देता. मैं समझ नहीं पा रहा था कि, मैं यह ब्लॉग लिखने से पहले सुप्रीम कोर्ट से पूछूं, की साहब मैं तो बहुत छोटा सा आदमी हूं. मैं ऐसा विचार लिखूं या नहीं? मेरे पास तो सांसद भी नहीं है बोलने के लिए? मेरे पास तो यही मेरा फोन है जहां मैं अपने आप को एक्सप्रेस कर पा रहा हूं. लिख पा रहा हूं. और मेरे पास कुछ भी नहीं है तो मैं क्या करूं?
दुनिया के कई लोकतंत्र है जिसमें से एक ब्रिटिश लोकतंत्र है,जिस पे हिंदुस्तान का लोकतंत्र ढला हुआ है. वहां से ही हमने बहुत कुछ लिया है. मुझको ध्यान है लंदन में एक हाइड पार्क है. उसे हाइड पार्क में लोग अपने-अपने मुद्दों को लेकर प्रदर्शन करते हैं, अपनी बात कहते हैं. कई लोग वहां खड़े होके जो उनके मन में आता है, बोलते रहते हैं. अच्छा बोलते हैं, बुरा बोलते हैं. देश के खिलाफ बोलते हैं. किसी पार्टी नेता के खिलाफ बोलते हैं. जो बोलना है सब बोलते हैं. उसको हाइड पार्क को अभिव्यक्ति का चौराहा माना जाता है. किसी को नहीं कहा जाता तुम सच्चे ब्रिटिश होते तो ऐसा बयान नहीं देते.
सरकार के पास राहुल गांधी के बयान का जवाब देने के लिए मौका है. सरकार कह सकती है राहुल गांधी झूठ बोल रहे हैं. बहुत सारे नेता बयान देते हैं. सरकार उनका खंडन करती है. सरकारों का एक अमला है जो इसी काम के लिए रहता है. मैं अभी सरकार पर नहीं जा रहा हूं क्योंकि सरकार ने नहीं कहा कि राहुल गांधी सच्चे भारतीय होते तो ऐसा बयान नहीं देते. यह तो सुप्रीम कोर्ट के जजों ने कहा है. सुप्रीम कोर्ट सरकार के ऊपर है. सरकार तो चुनाव जीतकर जो लोग आते हैं उनसे बनती है. सुप्रीम कोर्ट के जज चुनावों से परे हैं. इनके ऊपर भारत के संविधान को लागू करने की जिम्मेदारी है. इन्होंने यह कैसा नियम लागू किया है? अगर आप एक सच्चे भारतीय होते तो आप ऐसा बयान नहीं देते. संविधान के कौन से प्रावधान के तहत सुप्रीम कोर्ट के दो जजों ने यह व्याख्या की है? कौन से प्रावधान के तहत? मैं थोड़ा विचलित हूं.
मैं राहुल गांधी के मुकाबले, सुप्रीम कोर्ट के जजों के मुकाबले मैं बहुत छोटा इंसान हूं. मैं एक छोटे से राज्य के छोटे से शहर में रहने वाला एक छोटा सा अखबार नवीस हूं. अनुभव और तजुर्बे में भी उनसे बहुत छोटा है. मेरे बस में एक वकील करना भी नहीं है क्योंकि मेरे पास रोजगार नहीं है. देश की सबसे बड़ी और सम्मानित यूनिवर्सिटी से पढ़ने के बाद भी मेरी नौकरी नहीं लगी है . अगर मुझको बुलाया जाए तो मुझको खुद ही खड़े रह के अपनी जिरह करनी होगी.
वैसे तो राहुल गांधी ने किसी को हिंदुस्तान का गद्दार और चीन का एजेंट तो नहीं कहा हैं. आपको ध्यान है..... जब किसान आंदोलन चल रहा था, जिनमें कितने किसान आंदोलनकारियों शायद 650- 700 लोग मर गए थे. उस आंदोलन के कारण उनको खालिस्तानी, आतंकी, पाकिस्तान परस्त, गद्दार और टूलकिट गैंग का मेंबर तक कहा गया. क्या किसी जज ने पूछा ऐसे बड़े-बड़े भारी भरकम बयान देने वाले सांसदों और मंत्रियों से, कि अगर आप एक सच्चे भारतीय होते तो हिंदुस्तान के किसान को खालिस्तान नहीं कहते. वो सिख है तो खालिस्तान हो गए. वो सरकार के नियमों के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं तो देश के गद्दार हो गए. सरकार को वो तीनों किसान कानून वापस भी लेने पड़े थे याद है ना आपको? तो क्या गद्दारों के, खालिस्तानियों के कहने पर आपने कानून वापस लिए थे? इसको देखता नहीं है सुप्रीम कोर्ट.
सुप्रीम कोर्ट के ये दो जज ये कोई नए नहीं है. सुप्रीम कोर्ट का जज बनने के पहले बहुत लंबी मशक्कत करनी पड़ती है. बहुत लंबी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है.
मैं बताऊं आपको, राहुल गांधी की राजनीतिक और चुनावी संभावनाओं से मेरा कोई लेना देना नहीं है. कांग्रेस की राजनीति से,मेरा कुछ लेना देना नहीं है.
मैं बहुत ही विचलित हूं. सच्चा भारती तय करना किसका काम है? कौन कितना कैरेट है? राहुल गांधी को तो खोटा सिक्का करार दे दिया है सुप्रीम कोर्ट ने. मैं जाऊंगा तो मुझको भी एक तरफ से खोटा एक तरफ से शायद खरा ऐसा करार देंगे. किसी को 22 कैरेट, किसी को 18, किसी को 16, किसी को 12 कैरेट, किसी को 6 कैरेट खरा या खोटा भारतीय बता देंगे.
राहुल गांधी की इज्जत तो धेले की नहीं रह गई है. इस देश के सुप्रीम कोर्ट के दो जज कह रहे हैं कि तुम अगर सच्चे भारतीय होते अगर? बताइए क्या इज्जत रह गई राहुल गांधी की?
मैं हैरान हूं थोड़ा सा. कोई राष्ट्रवाद के मुद्दे तय कर रहा है. कोई देशभक्ति के मुद्दे तय कर रहा है. कोई देश प्रेम तय कर रहा है. और अभी सुप्रीम कोर्ट ने यह क्या कहा है?
दिल पर हाथ रख के पूछिएगा अपने दिल से कि सरकार से सवाल करना, देश की हिफाजत के बारे में सवाल करना, इसमें नाजायज क्या है? सच्चा भारतीय और कौन होगा? जो अपनी देश की हिफाजत के लिए बात करें. सरकार को कई सवालों से असुविधा हो सकती है. देश सरकार से ऊपर होता है, ठीक वैसे ही जैसे संविधान जो है वो सरकार, संसद और सुप्रीम कोर्ट इनसे ऊपर है. और संविधान की भावना संविधान के शब्दों से ऊपर होती है और संविधान की भावनाओं के ऊपर भी लोकतंत्र का, जमूरियत का, डेमोक्रेसी का फलसफा.
मैं जानता हूं मैं जितना कह रहा हूं, मैं जितने सवाल सुप्रीम कोर्ट से कर रहा हूं तो मैं एकदम ही खोटा भारतीय हूं उनकी नजर में. एकदम ही खोटा भारतीय मेरे पास संसद भी नहीं है. संसद की सीट नहीं है. संसद का माइक भी नहीं है जो सहूलियत से चालू होता है, बंद होता है. वो एक अलग किस्सा है। मैं उस पे जाना नहीं चाहता. मैं कहां पे पूछूंगा? मैं तो संसद जा भी नहीं सकता. सोशल मीडिया पे अब पूछ नहीं सकता मैं, सुप्रीम कोर्ट का ये कहने के बाद. क्या सुप्रीम कोर्ट मुझको कहेगा कि तुम अपनी संस्था के प्लेटफार्म के परे सोशल मीडिया पर क्यों सवाल करते हो? कैमरे पर क्यों सवाल करते हो? कौन तय कर रहा है इन सरहदों को? इंसानियत की सरहदों को मुंबई हाईकोर्ट में तय किया जा रहा है. हाई कोर्ट के दो जजों ने यह परिभाषा भी पिछले हफ्ते ही दी है.
फिलिस्तीन जो कि दुनिया में बर्बरता की सबसे बड़ी मिसाल है, हिटलर के बाद. अगर उस पर आप मुंह नहीं खोल सकते तो आप एक कुएं में रहिए. मैं गाली देना नहीं चाहता मेंढक को लेकिन जो कहा जाता है कुएं के मेंढक की तरह रहिए. मत देखिए बाहर. हिंदुस्तान की सरहद के बाहर कुछ भी देखने की आपको इजाजत नहीं है और राहुल गांधी को तो हिंदुस्तान की सरहद पर भी देखने की इजाजत नहीं है. राहुल गांधी अगर तुम हिंदुस्तान की सरहद को देखकर (जो भाजपा के सांसद बोल रहे हैं या जो बहुत सारे फौजी अफसर बोल रहे हैं) अगर तुम उस बात को दोहराते हो तो तुम सच्चे भारतीय नहीं हो.
मैं एक बात आपको बताऊं, सुनने में आपको थोड़ा बुरा लगेगा. भाजपा के सांसदों ने भी, भाजपा के नेताओं ने भी ऐसा नहीं कहा था कि राहुल सच्चा भारतीय नहीं है. अब तक यह कहा था की तुम्हारे बयान में पाकिस्तान की हिमायत दिखती है. तुम्हारे बयान पाकिस्तान का साथ देते हैं. सच्चा भारतीय नहीं हो ऐसा तो भाजपा के सांसदों ने नहीं कहा था. लेकिन जस्टिस दीपंकर दत्ता और जस्टिस ऑगस्टिन जॉर्ज मसीह इन्होंने कहा है. यह शब्द ना सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में, ना सिर्फ हिंदुस्तान के संवैधानिक इतिहास में, ना सिर्फ भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में बल्कि दुनिया के लोकतांत्रिक इतिहास में ग्रेनाइट में जिस तरह से लकीर पैदा करके शीशा भर के जो लिखा जाता है यह शब्द इतिहास में पत्थर पर शिलालेख की तरह दर्ज रहेंगे. अगर आप एक सच्चे भारतीय होते तो आप वैसा बयान नहीं देते.
आप सोचिएगा आप क्या हैं? आप सच्चे भारतीय हैं या नहीं है? सोचिएगा आप उधर मुंबई में अगर नाली से परे आपने कुछ देखा, गंदगी से परे कुछ देखा, देश की दिक्कतों से परे आपने कुछ देखा, अगर दुनिया का सबसे बड़ा जुल्म और सबसे बड़ी बेइंसाफी फिलिस्तीन की तरफ अगर आपने देख लिया तो आपको मुंबई में एक सभा करने की इजाजत नहीं है. कोई गाना है एक शायद "ये कहां आ गए हम?" उसके आगे का मुझको याद नहीं है, मायने भी नहीं रखता. मुझको यह एक लाइन याद पड़ती है बार-बार. यह कहां आ गए हम? यह कहां आ गए हम?
बॉम्बे हाई कोर्ट ने जो कहा उसको देखिए. सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा उसको देखिए. सोचिएगा इस बात को कि 1950 के पहले देश की संविधान सभा जो थी जिसमें अंबेडकर थे, नेहरू थे जिसमें पटेल थे. गुजरात में जिनकी दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा बनी है. जिसमें डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी थे जो भाजपा के आराध्य पुरुष हैं. ऐसे - 2 दिग्गज जिस संविधान सभा में थे. क्या उस संविधान सभा ने कभी ऐसी कल्पना की थी कि इस देश का सुप्रीम कोर्ट यह तय करेगा कि कौन सच्चा भारतीय है और कौन नहीं? क्या कल्पना की थी उस संविधान सभा ने? क्या भारत के भविष्य निर्माताओं ने कभी ऐसे दिन की कल्पना की थी कि सुप्रीम कोर्ट इस देश के एक सांसद को जो यहीं पैदा हुआ है उस सांसद को जो कि लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष भी है उससे सवाल करेगा कि आप सच्चे भारतीय रहते तो ऐसा बयान नहीं देते.
सोचिएगा आप अपने खुद के बारे में सोचिएगा..मैं तो दहशत में हूं. मेरे हाथ पैर सब कांप रहे हैं. मेरी हिम्मत नहीं है. मैं एकदम बौना हूं सुप्रीम कोर्ट के सामने. इतनी बड़ी अदालत है. मैंने पैर भी नहीं रखा है आज तक उस "न्याय के मंदिर" में. मैं तो आज तक जिला अदालत नहीं गया हूं.
मेरी शुभकामना है राहुल गांधी के साथ कि आप हौसला मत खोना. कोई ऐसा वैसा कुछ काम मत कर बैठना इससे निराश होकर. इस इस टिप्पणी के खिलाफ अपील करना. अभी भी बॉम्बे हाई कोर्ट के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने कुछ नहीं किया है. लेकिन अभी भी मेरा मानना है है कि सुप्रीम कोर्ट में जिसको कहा जाता है कि बेटर सेंसेस प्रिवेल्ड हो सकता है. कोई एक ऐसा विवेक का काम करे सुप्रीम कोर्ट कि वो इस जुबानी टिप्पणी को खारिज करें. इसको मिटा दे.
सुप्रीम कोर्ट सच्ची भारतीयता को तय करने पे आ गया है. मेरे पास यही एक जरिया है. मैं यहां पर अपील कर रहा हूं. हम खतरनाक दौर से गुजर रहे हैं. यह आसान दौर नहीं है. हमारे संवैधानिक अधिकारों की यह आसान व्याख्या नहीं है. जिस अधिकार का इस्तमाल सुप्रीम कोर्ट के जजों ने किया है. इसकी व्याख्या होनी चाहिए कि क्या इनको ऐसा कहने का कोई हक है?
मेरा सवाल है. मेरी जिज्ञासा है. मैं जानना चाहता हूं कि क्या इनको ऐसा कहने का हक है? आप भी सोच के देखिएगा. आपको लगता है कि मैंने जायज सवाल उठाया है या कम से कम एक जिज्ञासु का सवाल उठाया है. मैं एक स्टूडेंट की तरह सीखना चाहता हूं. आपको लगता है कि मेरा सवाल एक जवाब का हकदार है तो इसको अपने जानकार लोगों को भेजिएगा. उनसे पूछिएगा कि ये क्या है? ये क्या सुप्रीम कोर्ट तय कर सकता है कि मेरी और तुम्हारी सच्ची भारतीयता क्या है? क्या तुम चाहोगे कि सुप्रीम कोर्ट तय करे? उसके पास कोई मामला नहीं है मेरी भारतीयता तय करने का. जो कानून बने हैं अभी राष्ट्रीयता भारतीयता तय करने का उसके तहत यह मुकदमा नहीं था. अपने दोस्तों को बढ़ाइएगा इसको. उनको भी समझने दीजिएगा इस मुद्दे को.
ये दोनों घटनाएं मिलकर एक अजीब तस्वीर पेश करती हैं—जहां अदालतें यह तय करने लगती हैं कि देशभक्ति की परिभाषा क्या है, और कौन-सा बयान ‘मर्यादा’ में है. अगर आप सत्ता की लाइन से मेल नहीं खाते, तो आपको ‘एंटी-नेशनल’ का तमगा मिलने में देर नहीं लगती.
हमने संविधान इसलिए नहीं बनाया था कि अदालतें सरकार की लाइन दोहराएं. अदालतें हमेशा नागरिक के अधिकारों की अंतिम रक्षा की जगह मानी गईं. लेकिन अब, जब वही अदालत सवाल उठाने वालों पर तिरछी नज़र डालने लगे, तो हमें यह पूछना ही होगा—कौन है असली देशभक्त? जो सरकार से सवाल पूछता है, या जो अंधभक्ति में चुप रहता है?
स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर यह सवाल बहुत मौजू है. इस सवाल के बारे में आप सोचिएगा और दूसरों को भी सोचने के लिए इसे आगे भेजिएगा. इसी के साथ आपको स्वतंत्रता दिवस की बधाइयां देता हूं. क्योंकि बोल के लव आजाद है मेरे......
जय संविधान....जय हिंदुस्तान
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