बाबा साहब : व्यक्ति से संस्थान निर्माण का व्यक्तित्व

बाबा साहब भीमराव अंबेडकर एक ऐसा छात्र जो समाज के तथाकथित "निम्न" वर्ग में पैदा हुए। जिस कारण उनको भेदभाव और कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा जिसके बावजूद वो उस मुकाम तक पहुंचे जहां और कोई ना पहुंच पाया। वो भारत के सबसे शिक्षित व्यक्तियो मे से एक थे जिनके पास 32 डिग्रीयां थी और यह डिग्रीयां इसलिए और महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि उस वक्त शिक्षा को लेकर उतनी जागरूकता समाज मे नही थी। उन्होंने ना खुद शिक्षा ले बल्कि ऐसी व्यवस्था की सबको शिक्षा मिले और किसी को भी भेदभाव और छूआछूत का सामना न करना पड़े। 
बाबा साहब बहुआयामी विद्वान और एक दूरदर्शी संस्थान निर्माता थे। उनके जीवन के एक साथ कई पहलू हैं और उनकी असंख्य व्याख्याएं हो सकती हैं। लेकीन आज इस लेख के माध्यम से उनके संविधान निर्माता, महिलाओ के अधिकार वक्ता और एक पत्रकार एवं संपादक के रोल के कुछ आयामों को देखने की कोशिश करेंगे।
यह लेख उनके जयंती के अवसर पर उन्हें याद कर श्रद्धांजली अर्पित करने का एक छोटा सा प्रयास है।

शिक्षा पर दिया विशेष ध्यान दिया 
बाबा साहेब शिक्षा का महत्व जानते थे इसलिए वो जीवन भर शिक्षा को बढ़ावा देने का काम किया था। उन्होंने खुद 32 डिग्री हासिल की जो आज तक विश्व मे किसी के पास नहीं है। उनका हमेशा से मानना था की शिक्षा ही वह हथियार है जिसके दम पर समाज मे बदलाव लाया जा सकता है। वो कहते थे शिक्षा बाघिन के उस दूध की तरह है जो जितना पिएगा वो उतना दहाड़ेगा। इसलिए उन्होने समाज के हर वर्ग शिक्षित होने की बात कही।

संविधान निर्माण मे निभाई महत्वपूर्ण भूमिका 
14 अप्रैल 1891 को जन्मे बाबा साहेब अंबेडकर की संविधान के निर्माण में भूमिका अतुल्य है। कई लोगों ने इस बाबत तमाम दलीलें दीं लेकिन डाॅ. अंबेडकर के योगदान और भूमिका को भारतीय संविधान में नकारा नहीं जा सकता है। देश की आजादी के बाद भारतीय संविधान सभा का गठन हुआ। संविधान सभा में कुल 379 सदस्य थे, जिसमें 15 महिलाएं थीं। संविधान की ड्राफ्टिंग समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अंबेडकर थे। यह उस दौर में बहुत बड़ी बात थी कि जब छुआछूत और जाति-पाति मानी जाती थी, तब एक अस्पृश्य व्यक्ति को प्रभावशाली पद मिला हो। कई विशेषज्ञों के मुताबिक, संविधान सभा में बाबा साहेब का चयन उनकी प्रशासनिक दक्षता और राजनीतिक प्रभाव के कारण हुआ था। 


संविधान निर्माण के लिए जिस ड्राफ्टिंग कमेटी का गठन हुआ उसके मुखिया के तौर पर अंबेडकर का निर्वाचन हुआ। दरअसल उस समय नेहरू ने संविधान सभा के उद्देश्यों की एक रूपरेखा प्रस्तुत की थी, तब एक अन्य सदस्य रहे जयकर ने राय दी कि किसी भी प्रस्ताव पर मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि के बिना मतदान नहीं किया जा सकता। इस पर अंबेडकर ने भी पहली बार हस्तक्षेप करते हुए कहा अपनी राय दी। उनकी सलाह से बहुत सारे कांग्रेसी नेता प्रभावित हुए। उन्होंने संविधान सभा के चर्चा का संचालन और नेतृत्व किया। अंबेडकर ने अल्पसंख्यकों के अधिकारों के विषय में संबंधित अनुच्छेदों पर बहस के दौरान अपना नजरिया सबके सामने रखा। बतौर ड्राफ्टिंग कमेटी अध्यक्ष बाबा साहेब ने कई समितियों की ओर से आए सभी प्रस्तावों को अनुच्छेदों में सूत्रबद्ध किया। संविधान की सम्पादकीय जिम्मेदारी भी मुख्य तौर पर अंबेडकर ने ही उठाई। जिसे बाद में ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्य रहे टी.टी. कृष्णमाचारी ने संविधान सभा के सामने रखा। इसलिए ही आज उनको भारतीय संविधान के शिल्पकार के रूप में जाना जाता है।

महिला अधिकारों के थे पक्षधर 

भारतीय संविधान के शिल्पकार बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने संविधान के निर्माण के साथ समाज सुधार के लिए कई कार्य किए। पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं को एक समान अधिकार दिलाने के लिए बाबा साहब आंबेडकर ने वर्षों तक मशक्कत की, जो उन्हें सशक्त बनाने में मददगार साबित हुई। भारतीय संविधान में महिलाओं को जो अधिकार दिए गए हैं, वो बाबा साहब आंबेडकर के कारण ही है। दलितों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले डॉ. आंबेडकर ने महिलाओं को एक समान दर्जा दिलाने के लिए मनुस्मृति को जला दिया था। इस घटना का विरोध आज भी होता है। डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि मनुस्मृति ने सिर्फ जाति प्रथा, ऊंच-नीच को ही बढ़ावा नहीं दिया था बल्कि इस पुरूष प्रधान समाज को आगे बढ़ाने में मदद की है।
वायसराय की कार्यकारी परिषद में श्रम सदस्य रहते हुए डॉ. आंबेडकर ने पहली बार महिलाओं के लिए प्रसूति अवकाश (मैटरनल लिव) की व्यवस्था की। आजाद भारत के पहले कानून मंत्री के रूप में उन्होंने महिला सशक्तीकरण के लिए कई कदम उठाए। सन् 1951 में उन्होंने 'हिंदू कोड बिल' संसद में पेश किया। डॉ. आंबेडकर प्राय: कहा करते थे कि मैं हिंदू कोड बिल पास कराकर भारत की समस्त नारी जाति का कल्याण करना चाहता हूं। मैंने हिंदू कोड पर विचार होने वाले दिनों में पतियों द्वारा छोड़ दी गई अनेक युवतियों और प्रौढ़ महिलाओं को देखा। उनके पतियों ने उनके जीवन-निर्वाह के लिए नाममात्र का चार-पांच रुपये मासिक गुजारा बांधा हुआ था। वे औरतें ऐसी दयनीय दशा के दिन अपने माता-पिता, या भाई-बंधुओं के साथ रो-रोकर व्यतीत कर रही थीं।

कुछ लोगों के विरोध की वजह से हिंदू कोड बिल उस समय संसद में पारित नहीं हो सका, लेकिन बाद में अलग-अलग भागों में जैसे हिंदू विवाह कानून, हिंदू उत्तराधिकार कानून और हिंदू गुजारा एवं गोद लेने संबंधी कानून के रूप में अलग-अलग नामों से पारित हुआ जिसमें महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार दिए गए।
लेकिन डॉ. आंबेडकर का सपना सन् 2005 में साकार हुआ जब संयुक्त हिंदू परिवार में पुत्री को भी पुत्र के समान कानूनी रूप से बराबर का भागीदार माना गया। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि पुत्री विवाहित है या अविवाहित। हर लड़की को लड़के के ही समान सारे अधिकार प्राप्त हैं। संयुक्त परिवार की संपत्ति का विभाजन होने पर पुत्री को भी पुत्र के समान बराबर का हिस्सा मिलेगा चाहे वो कहीं भी हो। इस तरह महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने में डॉ.आंबेडकर ने बहुत सराहनीय काम किया।

पत्रकार के तौर भी निभाई अग्रणीय भूमिका 
डॉ. आंबेडकर के जमाने में प्रिंट यानी अखबार-पत्र-पत्रिकाएं और रेडियो ही जनसंचार के प्रमुख साधन थे। मीडिया पर ब्राह्मणों/सवर्णों का पारंपरिक प्रभुत्व तब भी था. इसलिए डॉ. आंबेडकर को प्रारंभ में ही ये समझ में आ गया कि वे जिस लड़ाई को लड़ रहे हैं, उसमें मेनस्ट्रीम मीडिया उनके लिए उपयोगी साबित नहीं होगा, बल्कि उन्हें वहां से प्रतिरोध ही झेलना पड़ेगा। यह अकारण नहीं है कि डॉ. आंबेडकर को अपने विचार जनता तक पहुंचाने के लिए कई पत्र निकालने पड़े, जिनके नाम हैं – मूकनायक (1920), बहिष्कृत भारत (1924), समता (1928), जनता (1930), आम्ही शासनकर्ती जमात बनणार (1940), प्रबुद्ध भारत (1956)। उन्होंने संपादन, लेखन और सलाहकार के तौर पर काम करने के साथ इन प्रकाशनों का मार्गदर्शन भी किया।

18 जनवरी 1943 को पूना के गोखले मेमोरियल हाल में महादेव गोविन्द रानाडे के 101वीं जयंती समारोह में ‘रानाडे, गाँधी और जिन्ना’ शीर्षक से दिया गया डॉ. आंबेडकर का व्याख्यान मीडिया के चरित्र के बारे में उनकी दृष्टि को समझने के लिए महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा, ‘मेरी निंदा कांग्रेसी समाचार पत्रों द्वारा की जाती है. मैं कांग्रेसी समाचार-पत्रों को भलीभांति जनता हूं। मैं उनकी आलोचना को कोई महत्त्व नहीं देता. उन्होंने कभी मेरे तर्कों का खंडन नहीं किया। वे तो मेरे हर कार्य की आलोचना, भर्त्सना व निंदा करना जानते हैं. वे मेरी हर बात की गलत सूचना देते हैं, उसे गलत तरीके से प्रस्तुत करते हैं और उसका गलत अर्थ लगाते हैं। मेरे किसी भी कार्य से कांग्रेसी-पत्र प्रसन्न नहीं होते। यदि मैं कहूं कि मेरे प्रति कांग्रेसी पत्रों का यह द्वेष व बैर-भाव अछूतों के प्रति हिंदुओं के घृणा भाव की अभिव्यक्ति ही है, तो अनुचित नहीं होगा।'
आज जिस तरीके से मीडिया के विभिन्न साधन व्यक्ति पूजा और सरकार की आलोचना को राष्ट्र की आलोचना साबित करने में लगे हैं या राजनीतिक दलों के प्रवक्ता की तरह काम कर रहे हैं, उसे देखते हुए डॉ. आंबेडकर के विचार आज भी प्रासंगिक हैं. यदि आज डॉ. आंबेडकर होते तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनके निशाने पर कौन सी विचारधारा और पार्टी तथा नेता होते।

खैर आज का दिन किसी बहस में पड़ने के बजाय ऐसे महान हस्ती याद और नमन करने का दिन है। परम् श्रदय बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर को उनकी जयंती पर कोटि कोटि नमन। 🙏🏻🙏🏻

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