सोलोगैमी - भारतीय सामाजिक संस्थाओं पर कुठाराघात या नई शुरुआत!??

जब भी हम शादी की बात सुनते हैं तो दिमाग में सबसे पहले दूल्हा-दूल्हन ही आते हैं, लेकिन क्या आपने कभी किसी ऐसी शादी के बारे में सोचा या सुना है जिसमें बिना दूल्हे के ही विवाह संपन्न हो जाए?
शायद नहीं हमें से बहुत ने इसके बारे में नहीं सुना होगा या नहीं जानते होंगे। लेकिन अब यह भी सच होने जा रहा है। कहते हैं कि शादी दो लोगों का मिलन होता है। दो लोग आपस में मिलकर जीवनभर साथ रहने का वादा करते हैं। फिर रस्में पूरी करके वे शादी करते हैं। मगर गुजरात के वडोदरा से एक अनोखा मामला सामने आया है। यहां 24 वर्षीय क्षमा बिंदु ने बुधवार को सेल्फ मैरिज किया। 
यह शायद देश का पहला मामला होगा जब एक 24 वर्ष की लड़की क्षमा ने बिना दूल्हे के खुद से शादी की। जिसमें दुल्हन सजी, मंडप सजा, फेरे भी हुए लेकिन दूल्हा नहीं रहा। 


सुनने में थोड़ा अजीब लग रहा होगा, लेकिन यह सच। कुछ दिनों पहले सोशल मीडिया के माध्यम से क्षमा बिंदु ने ऐलान किया कि वह तो सोलोगामीय नामक एक प्रथा से खुद से शादी करेंगी।  
अपने एलान के मुताबिक उन्होंने बुधवार को खुद के साथ शादी के बंधन में बंध गयी। उन्होंने शादी के दौरान फिर भी है और खुद से 5 वादे किए हैं जो उन्होंने पहले से लिख रखे थे। 
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार क्षमा ने एक इंटरव्यू में बताया कि कैसे वह हमेशा से दुल्हन तो बनना चाहती हैं लेकिन वह कभी किसी लड़के से शादी नहीं करना चाहती। इस वजह से उन्होंने सोचा कि जब वह खुद से ही सबसे ज्यादा प्यार करती हैं तो क्यों ना खुद से ही शादी कर लें। 
उनके इस फैसले में उनके माता-पिता ने भी उनकासर्पोट किया। शादी के बाद क्षमा दो हफ्तों के लिए अकेले हनीमून के लिए गोवा भी जाएंगी।  
अब हम आपको बताते हैं कि सोलोगैमी क्या है? 
सोलोगैमी एक टर्म है जिसमें लोग खुद से ही शादी करते हैं। इसे ऑटोगैमी भी कहते हैं। इसके समर्थकों का मानना है कि वे खुद से ही प्यार करते हैं और अपने मूल्यों के साथ खुशी-खुशी जीवन बिताना चाहते हैं। ऐसे लोग अपनी किसी अन्य व्यक्ति के बजाय खुद को ही अपना जीवनसाथी चुनते हैं।सोलोगैमी शादियों का चलन भारत में नहीं है। मगर पश्चिमी देशों में यह परंपरा नई नहीं है। सोलोगैमी मैरिज सेरेमनी पूरी तरह पारंपरिक शादी समारोह की तरह ही होते हैं। बस फर्क इतना होता है कि इसमें दो लोग नहीं बल्कि एक अकेली लड़की या अकेला लड़का ही शादी करता है। बाकी अन्य रस्में जैसे कि फेरे, जयमाला, रिसेप्शन आदि पारंपरिक शादी समारोह की तरह ही होती हैं। सभी रिश्तेदारों और दोस्तों को भी आमंत्रित किया जाता है। यहां तक कि सोलोगैमी शादी करने वाले लोग अकेले हनीमून पर भी जाते हैं। दुनिया भर में कुछ ट्रैवल एजेंसियां हैं, जो सोलो हनीमून पैकेज ऑफर कर रही हैं। 
सोलोगैमी की शुरुआत अमेरिका से हुई थी। 1993 में यहां लिंडा बारकर नाम की महिला ने खुद से शादी की थी। उस शादी में 75 मेहमान उपस्थित हुए थे। इसके बाद अन्य पश्चिमी देशों में भी सोलोगैमी का ट्रेंड बढ़ता गया। अब भारत में भी इसका सोलोगैमी का पहला मामला आ गया है। 
भारत के लिए यह नया मामला है लेकिन विदेशों में इसका चलन है। मैं आपको चार और उन हस्तियों के बारे में बताता हूं जिन्होंने खुले तौर पर सोलोगैमी मतलब कि खुद से शादी की। 
पहली हस्ती हैं एड्रियाना लीमा, एड्रियाना लीमा हमेशा ही अपने फैशन और स्टाइल को लेकर चर्चा में रही हैं। लेकिन खलबली तो तब मची थी जब इंस्टाग्राम पर उन्होंने शादी का ऐलान किया था। ये शादी कोई आम शादी नहीं बल्कि खुद से ही ब्याह करने का फैसला था। 
अमेरिका की मशहूर हस्ती फैंटासिया बर्रीनो भी सोलोगैमी अपनाने की लिस्ट में शुमार हैं। फैंटासिया ने पति से शादी करने से पहले खुद से शादी की थी। खुद से शादी करने पर उन्होंने कहा था कि किसी भी दूसरे इंसान में प्यार ढूंढने से पहले खुद से प्यार करना जरूरी होता है और ये बस वही था। ब्राजील की मॉडल क्रिस गलेरा ने भी खुद से शादी करने का फैसला लिया था। उन्होंने अपनी जिंदगी का पार्टनर ढूंढने से पहले 3 महीने तक खुद से शादी की और फिर खुद से डिवोर्स भी लिया। क्रिस गलेरा ने खुद से शादी करने के दौरान व्हाइट गाउन पहना और तमाम रस्मे अदा की थी।
इटली की रहने वाली लौरा मैसी ने साल 2017 में खुद से शादी की। इस बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा था कि उन्हें 40 की उम्र तक कोई जीवनसाथी नहीं मिला और उन्होंने खुद से ही शादी करने का फैसला लिया। अगर उन्हें कभी पार्टनर मिला जो उनके लिए एकदम परफेक्ट हो तो वह दूसरी शादी के बारे में भी सोच सकती हैं। 
भारत में लोकतंत्र है और सबको अपने हिसाब से जीवन जीने का हक उसमें कोई व्यक्ति हस्तक्षेप नहीं कर सकता। लेकिन क्या व्यक्ति को सामाजिक संस्थाओं से खेलने का हक है?? क्षमा की शादी ने सामाजिक संदर्भ को जन्म दिया है जिसके बारे में हम जानने की कोशिश करेंगे और कुछ प्रश्न भी खड़े किए हैं जिसका उत्तर देने के लिए मैं अपने विचार व्यक्त कर रहा हूं। 

क्षमा की शादी ने विवाह संस्था से जुड़े नए विमर्श को छेड़ दिया है। भारतीय संस्कृति और परंपरा के अनुसार विवाह एक संस्कार और दो आत्माओं का मिलन है। पति और पत्नी के रूप में आजीवन साथ रहने की शुरुआत विवाह के पावन बंधन से होती है। विवाह आपसी समझ और समन्वय से जुड़ा होता है, लेकिन जिस तरह आज के समय में शादियां टूट रही हैं वह सिसकते संस्कार और गिरते नैतिक मूल्यों का परिणाम है। सोलोगेमी आत्ममुग्धता का चरम है। खुद से शादी करना और शादी नहीं करना दोनों एक ही सिक्के के पहलू हैं।
विवाह भारतीय संस्कृति और धर्म के 16 संस्कारों में से एक माना गया है। मुख्यत: तीन भागों में विभाजित संस्कारों को क्रमबद्ध सोलह संस्कार में विभाजित किया जा सकता है। ये तीन प्रकार के होते हैं- (1) मलापनयन, (2) अतिशयाधान और (3) न्यूनांगपूरक।
1) मलापनयन - उदाहरणार्थ किसी दर्पण आदि पर पड़ी हुए धूल, मल या गंदगी को पोंछना, हटाना या स्वच्छ करना मलापनयन कहलाता है।
2) अतिशयाधान - किसी रंग या पदार्थ द्वारा उसी दर्पण को विशेष रूप से प्रकाशमय बनाना या चमकाना 'अतिशयाधानÓ कहलाता है। दूसरे शब्दों में इसे भावना, प्रतियत्न या गुणाधान-संस्कार भी कहा जाता है।
3) न्यूनांगपूरक - अनाज के भोज्य पदार्थ बन जाने पर दाल, शाक, घृत आदि वस्तुएँ अलग से लाकर मिलाई जाती हैं। उसके हीन अंगों की पूर्ति की जाती हैं, जिससे वह अनाज रुचिकर और पौष्टिक बन सके। इस तृतीय संस्कार को न्यूनांगपूरक संस्कार कहते हैं। 
अत: गर्भस्थ शिशु से लेकर मृत्युपर्यंत जीव के मलों का शोधन, सफाई आदि कार्य विशिष्ट विधिक क्रियाओं व मंत्रों से करने को संस्कार कहा जाता है। हिंदू धर्म में सोलह संस्कारों का बहुत महत्व है। वेद, स्मृति और पुराणों में अनेकों संस्कार बताए गए है किंतु धर्मज्ञों के अनुसार उनमें से मुख्य सोलह संस्कारों में ही सारे संस्कार सिमट जाते हैं अत: इन संस्कारों के नाम है- 
1)गर्भाधान संस्कार
2)पुंसवन संस्कार
3)सीमन्तोन्नयन संस्कार
4)जातकर्म संस्कार
5)नामकरण संस्कार
6)निष्क्रमण संस्कार
7)अन्नप्राशन संस्कार
8)मुंडन संस्कार
9)कर्णवेधन संस्कार
10)विद्यारंभ संस्कार
11)उपनयन संस्कार
12)वेदारंभ संस्कार
13)केशांत संस्कार
14)सम्वर्तन संस्कार
15)विवाह संस्कार और
16)अन्त्येष्टि संस्कार 

लिहाजा इस तरह की शादी का कोई खास महत्व नहीं रह जाता है, क्योंकि भारतीय संविधान न तो इसे मान्यता देता है और न ही समाज में इसकी व्यापक स्वीकार्यता है। खुद की सनक के कारण शादी के नाम पर बेजा खर्च कोई अक्लमंदी नहीं है। खुद का पसंदीदा होना और खुद से ही प्रेम करना एक निजी विषय है, लेकिन इसका प्रदर्शन कर विवाह संस्था को सवालों के घेरे में खड़ा करना कतई उचित नहीं है। प्रेम एक निजी विषय है। हर व्यक्ति को किसी न किसी से प्रेम होता है उदाहरण के लिए माता-पिता को अपने पुत्र से, विद्यार्थी को अपने ज्ञान से और धनी को अपने धन से आदि। उससे भी पहले हर किसी को स्वयं से प्रेम होता है। कम से कम विज्ञान भी इस बात की पुष्टि करता है। जैसे ही हमें खतरे का आभास होता है हम उससे बचने का प्रयास करने लगते हैं यह स्पष्ट करता है कि हर व्यक्ति को स्वयं से प्रेम है। लेकिन आप अपने धनबल के प्रदर्शन के लिए इसको एक व्यापक तौर पर विवाह जैसी सामाजिक संस्थाओं पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करें यह सही नहीं है। पश्चिमी विकार के कारण हम मानसिक रूप से पंगु बनते जा रहे हैं। अपने मूल्यों और संस्कारों से कटते जा रहे हैं। इसलिए अविवेकी होकर पश्चिमी देशों में हो रहे हर रस्म-रिवाज को सही मान लेते हैं, जबकि उनका कोई नैतिक आधार ही नहीं है। 

लिव-इन रिलेशनशिप और शादी से पहले शारीरिक संबंध पश्चिमी सभ्यता के वे चोचले हैं, जिसने स्‍त्री भोग की विकृत मानसिकता को बढ़ावा दिया है। सेल्फ मैरिज भले ही भव्य सामाजिक समारोहों में आयोजित की जाती हो, लेकिन यह ज्यादा दिनों तक टिकती नहीं है। एक न एक दिन लोग अकेलेपन से ऊबने लगते हैं। मसलन ब्राजीलियन माडल क्रिस गैलेरा ने सोलो मैरिज को खत्म कर दिया, क्योंकि इसके ठीक 90 दिन बाद उन्हें किसी और से प्रेम हो गया था। 
यह दिखाता है कि जीवन अकेले काटना मुश्किल है। 
विवाह एक सामाजिक व्यवस्था है। विवाह बिना समाज की कल्पना बिखर जाएगी और समाज पशुवत हो जाएगा। समाज मानव जाति के हजारों वर्षों के अनवरत प्रयत्नों, संघर्षों, उपलब्धियों, अविष्कारों आदि का परिणाम है। वह जंगल-दर्शन से हटकर समूह में रहने के लिए विवाह आवश्यक है। 
विवाह धर्म के आधार पर होते हैं। विवाह सनातन धम्र की रीति से होगा, इस्लाम धर्म की रीति से होगा, ईसाई धर्म की रीति से होगा। प्राय: होगा वह धर्म का चक्कर लगाकर ही। सरकारी विवाह अर्थात कोर्ट मैरिज बहुत कम होती है, यह बात अपने देश के वैवाहिक आंकड़ों को मद्देनजर रखते हुए सहज कही जा सकती है। 

विवाह ना सिर्फ एक सामाजिक संस्था है अपितु वह एक सामाजिक बीमा भी है। विवाह के बंधन में बंधने से दो व्यक्तियों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान होती है। इन दोनों को हर प्रकार के संबंध बनाने और प्रजनन की अनुमति समाज द्वारा प्रदान की जाती है। इस संस्था में माता-पिता इस उम्मीद और भरोसे से अपने जवानी में मेहनत करते हैं कि बुढ़ापे में उनकी संतान उनके लिए मेहनत करेगी। यह एक प्रकार का सामाजिक बीमा है जो परिवार के बंधन में बंधे सभी व्यक्तियों को प्रदान है। समाज ने इस को इसी प्रकार से स्वीकारा भी है। भारतीय संस्कृति में तो विवाह को दो आत्माओं का मिलन के साथ-साथ दो परिवारों के मिलन की भी बात कही जाती है। हमें इस सामाजिक संस्था और सामाजिक बीमा के बारे में अवश्य विचार करना चाहिए। 


निष्कर्ष
विवाह करना ना करना या एक व्यक्ति का अपना अधिकार हो सकता है। वह अपनी इच्छा के अनुरूप विवाह कर सकता है या अविवाहित भी रह सकता है। क्योंकि सोलोगैमी और अविवाहित रहने में कोई अंतर नहीं है तो मुझे लगता है कि हमें इस प्रकार से पश्चिमी मानसिकता (जिसका कोई तुक नहीं है) को अस्वीकार करते हुए विवाह जैसी सामाजिक संस्था और सुरक्षा के खिलवाड़ से बचना चाहिए। हमें विचार करना होगा कि क्या हम पश्चिम की संस्कृति के प्रभावित होकर दिमागी रूप से इतना अपंग हो गए हैं कि अपनी संस्कृति और समाज के व्यवस्थाओं पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर सकते हैं? सामाजिक बुराइयों पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करना और उनमें बदलाव लाना गलत नहीं है। लेकिन विवाह जैसी सामाजिक संस्था पर कुठाराघात करना कम से कम भारतीय संस्कृति, सभ्यता और समाज के लिए खतरा बन सकता है इस बात का हमें ख्याल रखना चाहिए। 

मित्रों यह आपके ऊपर निर्भर करता है कि आप इस बारे में क्या सोचते हैं?? हर व्यक्ति की सोच इसमें अलग हो सकती है। आप अपनी सोच के बारे में कमेंट के जरिए मुझे बता सकते हैं कि आप शादी एक सामाजिक संस्था को कैसे देखते हैं?

Comments

  1. Ye uska adhikar hai use dusre se vivah karna hai ya khud se or us samaj ka kya jo aaj bhi ladki paida hone pe kisi ke ghar me aise expression dete hain jaise kya hogya hai dharm yaa sanskaron matlab yah toh nhi hai ki hum apne aap ko jhok aise Bina kisi Khushi ke

    ReplyDelete

Post a Comment