फैमिली पॉलिटिक्स में सबसे बड़ा पावर हाउस कौन? लालू, सोरेन, मुलायम या कोई और...
आज इस अपने लेख में मैंने कुछ परिवारों की चर्चा की है और कुछ परिवारों की चर्चा किसी और दिन के लिए। भारतीय राजनीति में एक वक्त सियासी परिवारों का खूब बोलबाला था। बिहार में लालू यादव, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव, झारखंड में शिबू सोरेन साथ ही दक्षिण में भी इसके कई उदाहरण हैं। कई ऐसे नाम भी हैं जो इस दुनिया में नहीं रहे लेकिन उनके बाद उनके बेटे सत्ता संभाल रहे हैं। इनमें करुणानिधि के बेटे व तमिलनाडु के सीएम स्टालिन, आंध्रा में वाईएस राजशेखर रेड्डी के बेटे जगमोहन रेड्डी और ओडिशा में बीजू पटनायक के बेटे और सीएम नवीन पटनायक शामिल हैं। कुछ राज्यों में सरकार तो कहीं विपक्ष में परिवार भूमिका निभा रहा है। वहीं कई नेता अपनी विरासत सौंपने को तैयार हैं। आइए एक नजर डालते हैं कि फैमिली पॉलिटिक्स में कौन अब भी कितना दमदार है।
उत्तर प्रदेश
देश में सियासत की बात बिना यूपी-बिहार के किए पूरी नहीं होती है। सबसे पहले हम बात करेंगे प्रदेश के राजनीतिक रूप से सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की। उत्तर प्रदेश मे एक नहीं कई परिवार लंबे समय तक अपना दबदब कायम रखे हुए थे ।
पहले बात मुलायम परिवार की, मुलायम सिंह यादव की पार्टी सत्ता से दूर और फैमिली में फूट है। पहले यूपी मे जहां 2017 से पहले प्रदेश पर मुलायम फैमिली का खासा दखल था। समाजवादी पार्टी की सरकार थी और तत्कालीन सपा चीफ मुलायम सिंह यादव और उनके बेटे और तत्कालीन सीएम अखिलेश यादव का बोलबाला था। मुलायम सिंह यादव ने सपा को आगे बढ़ाया, वह खुद मुख्यमंत्री और देश के रक्षा मंत्री भी बने। यह वह दौर था जब राज्य से लेकर केंद्र की राजनीति तक में उनके दखल को साफ-साफ देखा जा सकता था। 2012 यूपी विधानसभा चुनाव में सपा को जबरदस्त सफलता मिलती है लेकिन मुलायम सिंह यादव खुद सीएम न बनकर बेटे अखिलेश यादव के लिए रास्ता बनाते हैं। अखिलेश यादव सीएम बनते हैं। उस वक्त तक यादव फैमिली के लगभग सभी सदस्य राजनीति में थे। कोई विधायक तो कोई सांसद तो कोई जिला पंचायत अध्यक्ष था। 2016 की पंचायत चुनाव के बाद 20 सदस्यों के साथ मुलायम का कुटुंब अब किसी भी पार्टी में सबसे बड़े राजनीतिक परिवार के होने का दावा कर सकता था। हालांकि 2014 के बाद इसमें बदलाव आता है। 2014 की लोकसभा चुनाव में पार्टी को से 5 सीटें मिलती है। वो सीटें भी सिर्फ़ परिवार की होती है। आजमगढ़ से मुलायम सिंह यादव,
फिरोजाबाद से मुलायम के चचेरे भाई रामगोपाल यादव के बेटे अक्षय यादव, मैनपुरी से मुलायम सिंह के बड़े भाई रतन सिंह पोते तेजप्रताप यादव, बदायूं से मुलायम सिंह के बड़े भाई अभयराम सिंह के बेटे धर्मेंद्र यादव और कन्नौज से अखिलेश की पत्नी डिंपल यादव। पहले तो पार्टी के सांसदों की संख्या घटती है और 2017 आते-आते सरकार भी चली जाती है। 2019 में इस पार्टी को अब तक का सबसे बड़ा झटका लगता है, मुलायम परिवार की भी ज्यादातर सदस्य चुनाव हार जाते हैं। यहां तक की अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव कन्नौज से अपना चुनाव नहीं बचा बाचा पाती है 2022 में सत्ता में वापसी नहीं होती और विपक्ष की ही भूमिका में पार्टी है। इधर मुलायम सिंह की उम्र अधिक होने के साथ अब वो भारतीय राजनीति में वैसे सक्रिय नहीं है लेकिन जिस पार्टी और परिवार को उन्होंने सहेजा आज उसकी राजनीति में पकड़ कमजोर हुई है। पार्टी की सत्ता में वापसी नहीं हुई और इधर परिवार का झगड़ा भी काफी बढ़ चुका है। पहले अपर्णा यादव और अब शिवपाल के भी बीजेपी में जाने की चर्चा जोरों पर है।
अंसारी परिवार
उत्तर प्रदेश में वैसे तो कई परिवारों का राजनीतिक रसूख है लेकिन एक और परिवार है जिसकी मैं यहां चर्चा करना चाहूंगा। वो परिवार है गाजीपुर का अंसारी परिवार। पूर्व बाहुबली विधायक और डॉन मुख्तार अंसारी का परिवार। भले ही वह पूर्वांचल के सबसे बड़े डॉन है लेकिन उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि एकदम अलग है। उनका पारिवारिक इतिहास काफी गौरवशाली रहा है। मुख्तार अंसारी के दादा आजादी से पहले इंडियन नेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष रहे थे।दादा का नाम भी मुख्तार अंसारी था, जिन्होंने देश की आजादी में अहम रोल अदा किया था। गाजीपुर का जिला अस्पताल उन्हीं के नाम पर है। उनके चाचा हमिद अंसारी देश के उपराष्ट्रपति रह चुके हैं। हामिद अंसारी 2007 से 2017 तक 2 बार देश के उपराष्ट्रपति रहे हैं। उनके एक बड़े भाई सिबगतुल्लाह अंसारी गाजीपुर की मोहम्मदाबाद सीट से दो बार विधायक रह चुके हैं। वर्तमान में उनके बेटे मनु अंसारी इस सीट से सपा विधायक हैं। उनके दूसरे बड़े भाई अफजाल अंसारी भी राजनीति में एक्टिव है और वर्तमान में गाजीपुर लोकसभा से सांसद है। अफजाल तीन बार मोहनदाबाद विधानसभा सीट से विधायक और दो बार गाजीपुर लोकसभा से सांसद रह चुके हैं। मुख्तार अंसारी के बेटे अब्बास अंसारी वर्तमान में बलदेव भारतीय समाज पार्टी के टिकट से अपने पिता की सीट घोसी से 2022 में विधायक चुने गए हैं।
अंसारी परिवार सिर्फ अलग-अलग दलों में नहीं रहा बल्कि उन्होंने अपनी एक राजनैतिक पार्टी भी कौमी एकता दल के नाम से बनाई थी। 2017 के विधानसभा चुनाव के पहले अंसारी परिवार ने कौमी एकता दल का विलय सपा में कर दिया था। अखिलेश यादव के विरोध पर पूरे परिवार को बाहर होना पड़ा था। जिसके बाद बसपा ने उन्हें गले लगाया था। इसके साथ ही मऊ की सदर सीट से मुख्तार अंसारी, घोसी सीट से मुख्तार अंसारी के बेटे अब्बास अंसारी व गाजीपुर की मोहम्मदाबाद सीट से सिबगतुल्लाह अंसारी को बसपा ने टिकट दिया। मुख्तार के अलावा जीत किसी को भी नसीब नहीं हुई। इसके अलावा 2019 के लोकसभा चुनाव में भी महागठबंधन की ओर से बसपा ने अफजाल अंसारी को गाजीपुर से टिकट दिया था और वो जीते भी।
वर्तमान में उनके परिवार में एक सांसद और 2 विधायक हैं।
पटेल परिवार
मिर्जापुर की सांसद अनुप्रिया पटेल नरेंद्र मोदी की सरकार में मंत्री हैं। वो अपना दल (एस) की प्रमुख हैं। अपना दल की स्थापना अनुप्रिया के पिता सोनेलाल पटेल ने बसपा से निकलने के बाद नवंबर 1995 में की थी। 2009 में सड़क हादसे में सोने लाल पटेल की मौत हो गई। पटेल की मृत्यु के बाद पार्टी की कमान उनकी पत्नी कृष्णा पटेल के हाथों में आ गई। 2014 में उन्होंने भाजपा से गठबंधन किया और 2 सीटें जीती। परिवार में वस्चर्व की लड़ाई में यह पार्टी दो हिस्सों में टूट गई। बाद में मां बेटी के बीच अनबन बढ़ने लगी और मां ने उन्हें पार्टी से निकाल दिया। अनुप्रिया ने भी पार्टी पर अपना दावा ठोक दिया। बाद में पार्टी दो हिस्सों में बट गई।
अनुप्रिया अपना दल (सोनेलाल) की अध्यक्ष बन गई और उनकी मां कृष्णा पटेल अपना दल (केमेरवादी) की अध्यक्ष बनने गई। उनकी बड़ी बहन पल्लवी पटेल अपनी मां कृष्णा पटेल की गुट मे शामिल है। इस बार के विधानसभा चुनाव में अपना दल की दोनों गुट दो अलग-अलग गठबंधन ओं के सारे चुनाव मैदान में उतरे थे। एक तरफ अनुप्रिया अपनी पुरानी सहयोगी बीजेपी के साथ चुनाव मैदान में कूदी थी तो वही कृष्णा पटेल वाला धड़ा समाजवादी पार्टी के साथ था। अनुप्रिया कि अपना दल तो भाजपा के साथ रहकर खूब फल-फूल रही है लेकिन वही उनकी मां अपना दल आज भी अपनी पहली जीत को तरस रहा है। भाजपा ने अनुप्रिया को केंद्र में और उनके पति आशीष पटेल को उत्तर प्रदेश सरकार में काबीना मंत्री बनाया है।
अनुप्रिया की पार्टी आज उत्तर प्रदेश में सीटों के मामले में भाजपा और सपा के बाद तीसरे नंबर पर है। देश की सर्वोच्च पंचायत संसद में भी अपना दल 100 साल पुरानी शिरोमणि अकाली दल के बराबर पर खड़ी है। चुनावी सफलता के नाम पर आज अनुप्रिया ने सिद्ध कर दिया है कि उत्तर प्रदेश में कुर्मीयों के सबसे बड़ी नेता वही है और अपने पिता की विरासत असली हकदार भी। हालांकि अनुप्रिया की बड़ी बहन पल्लवी पटेल ने 2022 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के टिकट पर भाजपा के बड़े ओबीसी नेता और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को चुनाव हराकर अपने आप को राजनीति में स्थापित करने का एक सफल प्रयास कर लिया है। हाल ही में पल्लवी के पति ने अपना दल कमेरावादी से इस्तीफा दिया है।
बिहार
बात अब लोकतंत्र के अगुआ रहे बिहार की। उत्तर प्रदेश की तरफ बिहार में भी कई परिवार अपना राजनीतिक रसूख रखते हैं। ऐसे ही कुछ परिवारों की बात में यहां करूंगा।
लालू फैमिली
लालू-मुलायम की दोस्ती और रिश्तेदारी दोनों है। यूपी और बिहार पड़ोसी राज्य हैं और मुलायम परिवार जैसी कहानी कुछ-कुछ लालू परिवार की भी है। साल 1997 में 05 जुलाई के दिन बिहार के तत्कालीन सीएम लालू प्रसाद यादव ने केंद्र की सत्ताधारी जनता दल से अलग होकर राष्ट्रीय जनता दल का गठन किया था। गठन के बाद से ही राजद का बिहार की राजनीति में खासा दबदबा रहा है।
2004 के आम चुनावों में लोकसभा की 24 सीटें जीतकर राजद केन्द्र में यूपीए की अहम सहयोगी पार्टी बनी थी। चारा घोटाले में अपनी कुर्सी जाते देख लालू यादव ने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया। 5 जुलाई की पार्टी के स्थापना के बाद 25 जुलाई को उन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी अपनी पत्नी राबड़ी देवी को सबको चौंका दिया। लालू यादव ने अपने दम पर 1997 में जिस आरजेडी को खड़ा किया था, उसने अगले ही विधानसभा चुनाव में कमाल कर दिया। उस वक्त झारखंड बिहार का ही हिस्सा था और वहां 324 विधानसभा सीट हुआ करती थीं. 2000 के बिहार विधानसभा चुनाव में आरजेडी ने 324 में से 124 सीटों पर जीत दर्ज की, जबकि बीजेपी 67, कांग्रेस 23, जेडीयू 21 और समता पार्टी 34 सीटों पर सिमट गई। आरजेडी के पास बहुमत नहीं था, ऐसे में थोड़ी सियासी उथल-पुथल भी देखने को मिला। लालू यादव ने जबरदस्त मैनेजमेंट कर सत्ता अपने हाथ ले ली और 2005 तक पांच साल फिर राबड़ी देवी मुख्यमंत्री रहीं। 2005 की शुरुआत तक बिहार में लालू फैमिली और उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल का बोलबाला साफ-साफ देखा जा सकता है। हालांकि राज्य में लालू यादव की ताकत कमजोर हुई लेकिन केंद्र में अब भी उनका दबदबा था। यूपीए 1 में बतौर रेल मंत्री लालू यादव ने खूब सुर्खियां बटोरीं। केंद्र में भले उनकी ताकत दिख रही थी लेकिन राज्य में पार्टी का आधार कमजोर हो रहा था। अगले दस साल तक पार्टी पूरी तरह से सत्ता से दूर रही। हालांकि 2015 में जब नीतीश कुमार बीजेपी से अलग हुए तो आरजेडी की नीतीश के सहारे सत्ता में वापसी होती है। लालू यादव के छोटे बेटे तेजस्वी डिप्टी सीएम बनते हैं। तेज प्रताप भी मंत्री बनते हैं। लेकिन यह साथ बहुत दिनों तक चलता नहीं है। 2 साल में ही नीतीश एक बार फिर बीजेपी के साथ लौट जाते हैं। उसके बाद बिहार में अब भी एनडीए की सरकार है। हालांकि इस दौरान लालू यादव की उम्र भी बढ़ती है और जेल भी हो जाती है। केंद्र में दखल पूरी तरह न के बराबर और राज्य में पार्टी विपक्ष की भूमिका में है।
हालांकि लालू के छोटे बेटे तेजस्वी यादव ने अपने पिता की विरासत को बखूबी संभाला है और साल 2020 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने अकेले दम पर पार्टी को बहुमत के करीब पहुंचा दिया था। पार्टी को सफलता दिलाने के बाद उन्होंने पार्टी और परिवार में खुद को स्थापित करने का एक बड़ा प्रयास किया है लेकिन उनकी पार्टी और परिवार में रह रह कर वर्चस्व की लड़ाई देखी जा सकती है। वर्तमान में तेजस्वी बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं तो वहीं उनकी मां और पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी विधान परिषद में नेता प्रतिपक्ष की भूमिका निभा रही है। उनकी बड़ी बहन मीसा भारती राज्यसभा की सदस्य हैं।
पासवान परिवार
लालू परिवार की तरह पासवान परिवार भी बिहार की राजनीति में अपना दखल रखता है। पासवान परिवार मतलब रामविलास पासवान और उनका परिवार। लोक जनशक्ति पार्टी की स्थापना साल 2000 में राम विलास पासवान ने की थी। राम विलास पहले जनता पार्टी से होते हुए जनता दल और उसके बाद जनता दूल यूनाइटेड का हिस्सा रहे, लेकिन जब बिहार की सियासत के हालात बदल गए तो उन्होंने अपनी पार्टी बना ली। दलितों की राजनीति करने वाले पासवान ने 1981 में दलित सेना संगठन की भी स्थापना की थी। राम विलास पासवान के अनुमान का ही नतीजा माना जाता है कि बिहार की सबसे छोटी पार्टियों की लिस्ट में होने के बावजूद उसकी हमेशा सत्ता में भागेदारी रहती है. लेकिन ये हिस्सेदारी उसे बिहार नहीं, बल्कि केंद्र की सत्ता में मिलती रही है। एलजेपी का गठन सामाजिक न्याय और दलितों पीड़ितों की आवाज उठाने के मकसद से किया गया था। मगर यह रामविलास की फैमिली कंपनी बन कर रह गई। रामविलास दलितों और खासकर दुसाध के सर्वमान्य नेता थे। वह लंबे समय तक केंद्र की सत्ता में काबिज रहे हैं और तकरीबन हर सरकार में मंत्री भी। उनके साथ-साथ उनके दोनों भाई और उनके बच्चे भी अब राजनीति में सक्रिय हैं।
रामविलास 2020 के विधानसभा चुनाव से ऐन पहले निधन हो गया। रामविलास ने 2019 में ही अपने बेटे को एलजीपी का अध्यक्ष बनाकर उनको अपनी विरासत सौंपने का फैसला कर लिया था। चिराग पहली बार मोदी लहर में 2014 में जमुई से चुनकर के संसद पहुंचे थे।
उनके निधन के बाद उनकी पार्टी में वर्चस्व की जंग तेज हो गई और पार्टी दो फाड़ हो गई। रामविलास के छोटे भाई पशुपति कुमार पारस के नेतृत्व में लोजपा सांसदों ने ना सिर्फ चिराग को संसदीय दल के अध्यक्ष पद से हटा दिया बल्कि पार्टी से भी अलग कर दिया। अब पशुपति कुमार पारस की अलग लोक जनशक्ति पार्टी है और जिनका प्रतिनिधित्व भी केंद्र की सरकार में है। वही खुद को मोदी का हनुमान बता चुके रामविलास के बेटे चिराग अब अकेले हो चुके हैं उन्होंने लोक जनशक्ति पार्टी रामविलास नाम से अपनी पार्टी बनाई है और उस को जीवित करने का प्रयास कर रहे हैं।
झारखंड
झारखंड एक छोटा सा पहाड़ी और जनजातीय वाला राज्य। जनजातियों के विरोध के चलते 2000 में बिहार से अलग होकर अलग राज्य बनता है। अलग राज्य बनने के बाद भी यह राज्य अपना विकास नहीं कर पाता है कारण राजनीतिक अस्थिरता रहती है। 22 साल के छोटे से दौर में राज्य ने छह मुख्यमंत्री देखें। 2014 से पहले तक आलम यह रहा कि कोई भी मुख्यमंत्री अपने 5 साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर सका। हालांकि पहली बार 2014 में बहुमत से जीतने वाली भारतीय जनता पार्टी ने एक गैर आदिवासी नेता रघुवर दास को अपना मुख्यमंत्री चुना जिसने अपने 5 साल का कार्यकाल पूरा किया लेकिन वह भी चुनाव में जीत कर दोबारा नहीं आ सके। अपने मातृत्व राज्य बिहार से अलग होकर बने इस राज्य में भी एक परिवार ने राज्य की राजनीति पर पकड़ बनाए रखी। वह परिवार है सोरेन परिवार।
सोरेन परिवार
झारखंड में सोरेन परिवार का राजनीति पर खासा वर्चस्व रहा। झारखंड के अलग राज्य बनने के बाद से इस परिवार के दो सदस्य अब तक पांच अलग-अलग कार्यकाल में 3 साल 633 दिन से अधिक दिन तक शासन कर चुके हैं। झारखंड जब नया राज्य बना उस वक्त से लेकर अब तक चर्चा में गुरुजी यानी शिबू सोरेन रहे हैं। झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना वर्ष 1972 में हुई थी और पार्टी का पहला महाधिवेशन 1983 में धनबाद में आयोजित हुआ था। शिबू सोरेन पहली बार 1991 में पार्टी के अध्यक्ष चुने गये थे और तब से लेकर वह लगातार इस पद पर निर्विरोध चुने जाते रहे हैं। झारखंड में शिबू सोरेन को चाहने वाले उन्हें गुरुजी कह कर संबोधित करते हैं। तीन बेटे (दुर्गा, हेमंत और बसंत) और एक बेटी (अंजलि ) है। पूरे परिवार का करियर राजनीति है। इस वक्त राज्य में झामुमो की ही सरकार है गुरुजी के बेटे हेमंत सोरेन सीएम। शिबू सोरेन के सबसे बड़े बेटे दुर्गा सोरेन विधायक थे हालांकि 2009 में उनकी मृत्यु हो गई थी। उनकी मृत्यु के बाद उनकी पत्नी सीता सोरेन उनकी सीट से विधायक हैं और वर्तमान में भी वह स्थित का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। शिबू सोरेन के सबसे छोटे बेटे बसंत सोरेन भी झारखंड मुक्ति मोर्चा के यूथ विंग के अध्यक्ष है।
शिबू सोरेन के बड़े बेटे दिवंगत दुर्गा सोरेन की पत्नी विधायक सीता सोरेन और उनकी दोनों बेटियों (जयश्री और राजश्री) ने अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। आनेवाले समय में ये अंजाम तक जरूर पहुंचेगा। झारखंड की राजनीति के जानकार बताते हैं कि देर-सबेर सोरेन परिवार में बिखराव तय है। वैसे हेमंत सोरेन जिस ओहदे पर हैं, उस पर सीता सोरेन के पति दुर्गा सोरेन की नेचुरल दावेदारी थी, मगर ऊपरवाले को कुछ और ही मंजूर था। जब ना तब विरासत पर सीता सोरेन हक जताते रहती हैं।
ऐसी सूचना है कि 2024 लोकसभा चुनाव में झारखंड मुक्ति मोर्चा दुमका लोकसभा सीट से सीता सोरेन को लड़ाना चाहती है। जामा विधानसभा सीट परंपरागत तौर पर दुर्गा सोरेन की सीट रही है, अब उनकी पत्नी सीता सोरेन विधायक हैं। इस सीट पर हेमंत सोरेन की नजर है, वो अपनी पत्नी कल्पना सोरेन के लिए सुरक्षित सीट चाहते हैं। सीता सोरेन दिल्ली की सफर करना तो चाहती हैं लेकिन जामा सीट का बलिदान देना नहीं चाहतीं। पारिवारिक अंतर कला के बीच सीता सोरेन ने अपनी दोनों बेटियों की राजनीति में एंट्री दिला दी। जिसकी वजह से मामला काफी पेंचिदा हो गया। सीता सोरेन को देवरानी कल्पना सोरेन के लिए जामा सीट खाली करना गंवारा नहीं लग रहा। वो चाहती हैं कि जामा सीट का वारिस देवरानी नहीं बल्कि बेटियां हों।
अब देखना यह है कि क्या झारखंड का यह परिवार एक होकर रह पाएगा या इसमें भी टूट हो जाएगी??
पश्चिम बंगाल
पश्चिम बंगाल वो राज्य है जो पहले कभी कांग्रेस और फिर वाम का गढ़ हुआ करता था। वर्तमान में वो टीएमसी के गढ़ के रूप में उभरा है। ममता बनर्जी नीत तृणमूल कांग्रेस ने वहां लगातार तीसरी पारी की शुरुआत की है। पश्चिम बंगाल में कभी एक परिवार का राजनीति पर कोई खासा प्रभाव नहीं रहा। हालांकि कुछ अलग अलग इलाकों में 1-2 खास परिवारों का वर्चस्व रहा है।
लेकिन वर्तमान में तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी बंगाल में भी राजनीतिक परिवार की शुरुआत कर चुकी हैं। वह अपने भतीजे अभिषेक बनर्जी को पार्टी में नंबर दो बना चुकी हैं। जिससे उनके कई बड़े दिग्गज नेता नाराज होकर भाजपा में जा चुके थे। हालांकि 2021 में चुनाव में टीएमसी की दमदार वापसी के बाद ज्यादातर ने घर वापसी कर ली। पार्टी के बड़े नेताओं का मानना है कि पार्टी और सरकार में ममता बनर्जी के बाद अभिषेक बनर्जी नंबर दो की हैसियत रखते हैं।
इसी के साथ पश्चिम बंगाल में भी राजनीतिक परिवार की शुरुआत हो चुकी है जो बंगाल की राजनीति पर हावी होना चाहता है।
उड़ीसा
उड़ीसा सूर्य मंदिर और जगन्नाथ पुरी के लिए मशहूर राज्य जो ज्यादा चर्चे में नहीं रहता है। यहां की राजनीति भी आमतौर पर शांति की राजनीति रही है। हर राज्य की तरह यहां पर भी शुरुआत में कांग्रेस का वर्चस्व था लेकिन उस वर्चस्व को तोड़ा पटनायक परिवार ने और वह आज भी उसी तरह राज्य की राजनीति पर हावी है।
साल 1990 के चुनाव में प्रदेश की जनता ने जेबी पटनायक जो कांग्रेस पार्टी से ताल्लुक रखते थे को सत्ता से बाहर किया तो दूसरे पटनायक नेता बीजू पटनायक को चुन लिया। बीजू पटनायक अपने जीवन काल में दो बार राज्य के मुख्यमंत्री और कई दफा लोकसभा के सदस्य और केंद्र में मंत्री रहे। पटनायक अपने अजान के वक्त तक लोकसभा में अपनी पार्टी का प्रतिनिधित्व करते थे। पटनायक के निधन के बाद उनके सहयोगी ने 1997 में नई पार्टी बीजू जनता दल का गठन किया। इसे आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने बीजू पटनायक के बेटे नवीन को आमंत्रित किया।
पिता की विरासत के चलते नवीन इस समय पार्टी के पोस्टर बॉय बन चुके थे और उनकी लोकप्रियता तेजी से बढ़ी। उन्होंने भाजपा को भी अपना सहयोगी बनाया। 1999 के आम चुनाव में वे सांसद बने, लेकिन केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी से मतभेद हुए तो प्रदेश की राजनीति में लौट आए और यहीं ध्यान केंद्रित किया। नवीन पटनायक को दिल्ली की राजनीति से ज्यादा मतलब नहीं होता है लेकिन राज्य में उनका अपना वर्चस्व कायम है। नवीन पटनायक 2019 में लगातार पांचवीं बार ओडिशा के मुख्यमंत्री बने हैं। नवीन पटनायक देश में लंबे समय तक मुख्यमंत्री पद पर बने रहने वाले नेताओं में से एक हैं। 2019 में ओडिशा में लोकसभा चुनाव के साथ हुए विधानसभा चुनाव में बीजेडी ने 146 में से 112 सीटों पर जीत दर्ज की। वहीं लोकसभा चुनाव में 21 सीटों में से बीजेडी को 12 सीटें मिलीं। नवीन पटनायक की बीजू जनता दल ने उड़ीसा राज्य में मोदी लहर को धता बताते हुए ना सिर्फ सत्ता में पांचवीं बार वापसी की बल्कि लोकसभा में भी अपने 12 प्रत्याशियों को भेजने में कामयाब रही। हाल ही में हुए राज्यसभा की 3 सीटों पर बीजद के प्रत्याशी निर्विरोध जीते। वही 31 मई को हुए ब्रजराजनगर विधानसभा सीट पर भी बीजद प्रत्याशी ने ही जीत दर्ज की। बीजद के विधायक किशोर मोहंती के निधन के बाद उनकी पत्नी अल्का मोहंती ने बीजद उम्मीदवार के रूप में उप चुनाव लड़ा था। उन्होंने अपने नजदीकी प्रतिद्वंदी कांग्रेस के उम्मीदवार और ओडिशा विधान सभा के पूर्व अध्यक्ष किशोर चंद्र पटेल को शुक्रवार को रिकॉर्ड 66 हजार मतों के बड़े अंतर से हराया था।
नवीन पटनायक अविवाहित हैं और अक्सर उनके बाद कौन का सवाल उड़ीसा की राजनीति में घूमता रहता है। हालांकि सीएम ने उड़ीसा वासियों को अपना परिवार कहकर अपने उत्तराधिकारी के सवाल पर विराम लगा दिया है। उन्होंने कहा था कि उड़ीसा वासी ही उनका अगला उत्तराधिकारी चुनेंगे। हालांकि उनके बड़े भाई के बेटे प्रेम पटनायक के उनके उत्तराधिकारी के रूप सामने आने के बाद होती रही है।
अब देखने वाली बात यह है कि क्या नवीन पटनायक भी परिवार वाद राजनीति को बढ़ावा देते हुए अपने भतीजे को
अपना उत्तराधिकारी घोषित करेंगे या फिर उड़ीसा वासी उनका उत्तराधिकारी खुद चुनेंगे।
तमिल नाडु
दक्षिण का राज्य तमिलनाडु की राजनीति सदर उत्तर भारत की राजनीति से अलग रही है। लेकिन एक बात इस राज्य की राजनीति में भी रही जो उत्तर भारत की राजनीति से जुड़ती है वह वंशवाद। आजादी के बाद से ही तमिलनाडु का राजनीतिक इतिहास तमिल सिनेमा के समानान्तर चला है। वैसे तो तमिलनाडु में परिवार का कोई खास महत्व नहीं है लेकिन एक परिवार है जो तमिलनाडु की राजनीति का एक ध्रुव है। यहां परिवार से ज्यादा चेहरों चाहे वह एमजी रामचंद्रन हो, करुणानिधि हो या फिर जयललिता। जनता ने परिवार से ज्यादा चेहरे को पसंद किया। लेकिन इन चेहरों में से एक करुणानिधि ने अपने परिवार को भी राजनीति में ना सिर्फ आगे बढ़ाया बल्कि उन्हें फलने फूलने का भरपूर अवसर प्रदान किया।
करुणानिधि परिवार
करुणानिधि 14 साल की उम्र में राजनीति में आए और दशकों तक राज्य की राजनीति को प्रभावित करते रहे। अपने अब तक के राजनीतिक जीवन में करुणानिधि ने कभी भी हार का मुंह नहीं देखा। 5 बार मुख्यमंत्री और 12 बार विधानसभा सदस्य रहने के साथ-साथ वे राज्य में अब समाप्त हो चुकी विधान परिषद के भी सदस्य रहे चुके थे।
उन्होंने तीन शादियां की। तीन शादियों से उनके 4 बेटे और 2 बेटियां हैं। बेटों के नाम एमके मुथू, जिन्हें पद्मावती ने जन्म दिया था, जबकि एमके अलागिरी, एमके स्टालिन, एमके तमिलरासू और बेटी सेल्वी दयालु अम्मल की संतानें हैं। दूसरी बेटी कनिमोझी तीसरी पत्नी रजति से हैं।
तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि के बड़े बेटे एम.के. अलगिरी केन्द्र में मंत्री रह चुके हैं। जबकि, करुणानिधि के छोटे बेटे का नाम है एम.के स्टालिन। स्टालिन तमिलनाडु के मुख्यमंत्री हैं और डीएमके के अध्यक्ष भी। डीएमके की पिछली सरकार (वर्ष 2006-11) में स्टालिन उप मुख्यमंत्री थे और उनके पिता एम करुणानिधि मुख्यमंत्री थे। इसके अलावा, करुणानिधि की बेटी कनिमोझी राज्यसभा सांसद रही है और उनका नाम 2 जी घोटाले में आया था। जिसके बाद कनिमोझी को जेल भी जाना पड़ा था। कनिमोझी वर्तमान में लोकसभा के सांसद हैं और सदन में डीएमके का चेहरा भी। इनके अलावा, मुरासोलि मारन भी करुणानिधि के भतीजे थे और वे केन्द्रीय मंत्रीमंडल में शामिल थे। मुरासोलि मारन के बेटे दयानिधि मारन भी यूपीए सरकार में केन्द्रीय मंत्री रह चुके हैं।
परिवारवाद भारतीय राजनीति की सच्चाई है और जनता ने भी इसे अपनी किस्मत समझ कर अपना लिया है।
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