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देशभक्ति का ठेका किसके पास? सवालों पर अदालत का हथौड़ा

2014 के बाद देशभक्ति पर सवाल उठाना एक राजनीतिक हथियार बन गया है। आज हालत यह है कि सवाल पूछने वाले को संदेह की नजर से देखा जाता है, चाहे वह पत्रकार हो, सांसद हो या आम नागरिक। सुप्रीम कोर्ट तक इस ट्रेंड का असर दिखने लगा है, जो चिंताजनक है। लोकतंत्र में असहमति और सवाल पूछना देशद्रोह नहीं, बल्कि जिम्मेदार नागरिकता का संकेत है। सोशल मीडिया ने लोगों को आवाज दी है, लेकिन आलोचना को देश विरोधी ठहराने की प्रवृत्ति ने लोकतांत्रिक बहस की नींव हिला दी है। सवाल पूछना लोकतंत्र की सेहत के लिए जरूरी है। क्या आपको याद है, देशभक्ति पहले दिल का मामला हुआ करती थी? अब लगता है कि यह अदालतों के आदेश और सरकार की ‘मैनुअल’ से तय होगी. पिछले कुछ दिनों में दो घटनाएं हुईं, जिन्होंने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया और शायद आपको भी सोचना चाहिए. 2014 में सत्ता परिवर्तन के बाद से ही एक नया ट्रेंड देखने को मिला है. अगर आप उनसे ज़रा भी मत भिन्नता जाहिर कीजिए तो तुरंत शक की निगाह से देखा जाने लगा जाता है और अगर आपने कोई भी ऐसा सवाल पूछ लिया जो सरकार को असहज करता हैं तो आपको एंटी नेशनल देशद्रोही पेंट करने में समय नहीं लगाया जा...

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